Thursday 2 December 2010

संजीवनी विधा क्या है ?

संजीवनी विधा क्या है ?

संजीवनी विधा क्या है ?
जीव के स्थूल शरीर में जो सुषमना नाङी नाभि से लेकर टेङी मेङी
नासिका तक आती है इसलिये इसे वक्रनाल भी कहा गया है . इसी
नाङी में प्राण के द्वारा श्वसन हो रहा है उस प्राण के टेङी मेङी नाङी
में टकराने से एक शब्द प्रतीत होता है . वह दो वर्णों वाला है .वह
बाहर के शून्य अविनाशी अक्षर की संगति से प्रकट हुआ है और नाद
में उसी में मिल जाता है जैसे घण्टी में हथौङा मारने पर घन्टी में
एक शब्द प्रकट होता है और उसी पल ध्वनि रूप बनकर शून्य में पहुँच
जाती है . वैसे ही उस स्वर में प्रवेश होने से इन्द्रियों में स्थिरता आ
जाती है और उस स्थिरता के बाद शरीर का ध्यान तक नहीं रहता है .
तब जीव ध्वनात्मक सुरंग में प्रवेश होकर ब्रह्म से मिल जाता है यानी
स्वर में जब ध्यान पहुँचता है उस समय ध्वनात्मक सुरंग प्रतीत होता
है . तब वह विदेह सर्वत्र व्यापक सुरंग में विलीन हो जाता है . जो प्राण
को उत्पन्न करने वाला तथा प्राण से भी परे प्राण का आधार ध्वनिमय
विराट पुरुष का प्राण शब्द है . वह घट का शब्द नहीं तथा न वर्ण
वाला है .
वह सदा एकरस , विदेह तथा व्यापक अति सूक्ष्म एवं अति लम्बा लगातार
होने वाला स्वर है . यहाँ पर यह भी कहना पङता है कि उसका ध्यान
विराट पुरुष को ध्येय बनाकर करना होगा . उसका मरम सहज योग वाला
है . क्योंकि तालू में जो ऊपर की ओर छिद्र गया है . वह एक रास्ता नासिका
की इङा पिंगला नाङियों में मिल गया है और एक सीधा ऊपर की और
सहस्रदल कमल में तथा उसी से सटा हुआ एक सहज रास्ता दसवें द्वार से
होता हुआ ऊपर की ओर धुर तक गया है . वही विदेह द्वार है .
वहाँ से ही योगीजन ध्वनात्मक शब्द को पकङकर यानी प्राण में जो कंपन करने
वाला है . निरन्तर तथा सनातन स्रष्टि का कारण है तथा प्राणों का प्राण है .
उसमें ध्यान लगाकर विराट पुरुष में लीन हो जाते हैं . ऐसी स्थिति हो जाने
पर उसे काल नहीं मारता क्योंकि वह काल से भी परे विचरण करते
हैं . काल समय को कहा गया है .समय सूर्य से उत्पन्न हुआ है .
इसलिये वह देहमुक्त योगी सूर्य से भी परे लोकों में जाकर उससे भी आगे
धुर तक जाता है तथा फ़िर वापस लौट भी आता है . वह इस प्रकार बार बार
मृत्यु को प्राप्त होकर तथा पुनः जनम को धारण होने वाला मृत्यु तथा जनम
के मरम को जानकर क्रीङा करता हुआ सारे बन्धनों से मुक्त एकरस निरन्तर
सच्चिदानन्द भाव को प्राप्त हो जाता है . वास्तव में वही मेरा परम स्वरूप है .
इसको पाकर सबको पाता है . इसे संजीवनी विधा , पारब्रह्म ग्यान आदि
सनातन , विराट पुरुष के स्वरूप का माध्यम तथा बोध बताया गया है .

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