Thursday 2 December 2010

श्रीमद्भगवद्गीता - शारदा महोदयया प्रेषिता: श्‍लोका: ।।

श्रीमद्भगवद्गीता - शारदा महोदयया प्रेषिता: श्‍लोका: ।।








1- यदा संहरते चायं कुर्मोंगानीव सर्वश:, 
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता.


2- विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:
रसवर्जं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 


3- यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:
इन्द्रियाणि प्रमाथिनी हरन्ति प्रसभम मन: ।।


4- तानिं सर्वाणि संयभ्य युक्त आसीत् मत्पर:
वशे हि यस्येद्रियाणि तस्य प्रज्ञां प्रतिष्ठा  ।।

श्रीमद्भगवद्गीता- केचन् श्‍लोका: शारदा महोदयया प्रेषिता: ।।

1-सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ, 
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि


2-कर्मण्येव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगो अस्त्वकर्मणि.


श्रीकृष्ण उवाच:
3-प्रजहाति यदा कामान सर्वानपार्थ मनोगतान,
आत्मन्येवात्मना तुष्ट:स्थित्धिर्मनोरुच्यते? 


4-दु:खेश्व्नुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:,
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते !!

दशरथ के तीन विवाह कैसे हुये..?

ये बात उन दिनों की है जब प्रथ्वी पर रावण का डंका बज रहा था और हर तरफ़
उसका जलजला कायम हो चुका था . रावण ने तमाम देवताओं को बन्दी बनाकर
लंका के कारागार में डाल दिया था और भांति भांति से अत्याचार करने में लिप्त
था . तब देवता अक्सर आपस में चर्चा करते और कहते कि अब अयोध्या के राजा
दशरथ का विवाह होगा..फ़िर उनके घर भगवान राम का जन्म होगा..राम इस
दैत्य रावण को मार देंगे और हम मुक्त हो जायेंगे..यही भविष्यवाणी है यही होना है .
रावण के कारागार गुप्तचर इस बात की सूचना रावण को दे देते .आखिरकार
रावण ने तय किया कि वह दशरथ का विवाह ही नहीं होने देगा तो राम का जन्म
कैसे होगा . जन्म नहीं होगा तो उसे मारेगा कौन ?
अपने इस प्रयास हेतु उसने कुछ गुप्तचर अयोध्या में भी तैनात कर रखे थे . दशरथ
युवावस्था में थे जव उनके लिये प्रथम विवाह का प्रस्ताव कैकय देश की राजकुमारी
कैकयी का आया .जो लोग नहीं जानते उन्हें बताना आवश्यक है कि कैकयी बेहद
सुन्दर , सुशील और अतिरिक्त गुणवान युवती थी उसका सौन्दर्य अप्सराओं को
लजाने वाला था . जाहिर था कि वह हर तरह से दशरथ के योग्य थी लेकिन जब
राजपुरोहितों ने कैकयी की कुन्डली का दशरथ की कुन्डली से मिलान किया तो उनके
माथे पर चिंता की लकीरें पङ गयीं और उन्होने कहा कि महाराज इस कन्या से आपने
विवाह कर लिया तो ये आपका समूल नाश कर देगी ऐसा योग बनता है .
लिहाजा जीती मक्खी कौन निगलता अतः वो विवाह प्रस्ताव ठुकराकर वापिस
कर दिया गया . इस बात को कैकय देश की तमाम जनता ने अपनी निजी बेइज्जती
के रूप में लिया क्योंकि कैकयी किसी द्रष्टि से अस्वीकार करने योग्य नहीं थी . रावण
ने चैन की सांस ली .कुछ दिनों के बाद दशरथ के लिये कौशल्या का प्रस्ताव आया..फ़िर
कुन्डली मिलायी गयी और अबकी बार पुरोहितों ने कहा कि ये कन्या हर तरह से
दशरथ के लिये उत्तम है लिहाजा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया..और कार्यवाही
आगे की तरफ़ बङने लगी..उधर लंका के कारागार में बन्द देवताओं ने कहा देखा हम
कहते थे कि इस रावण के अन्त का समय निकट आ रहा है अब कुछ ही दिनों में
दशरथ का विवाह होगा..फ़िर उनके घर भगवान राम का जन्म होगा..राम इस
दैत्य रावण को मार देंगे और हम मुक्त हो जायेंगे..यही भविष्यवाणी है यही होना है .
रावण ने गुप्तचरों से इस खबर की वास्तविकता पता लगाने को कहा तो बात
सौलह आने सच थी. उसने एक महाबली दैत्य को आदेश दिया कि दशरथ का विवाह
हो इससे पहले ही तू कन्या ( कौशल्या ) का हरण करके मार डालना . दैत्य इस आग्या
को मानकर चला गया . उधर दशरथ की बारात दरबाजे पर पहुँची और इधर मायावी
दैत्य ने कौशल्या का अपहरण कर लिया लेकिन बाद मैं उसे दया आ गयी सो उसने
कौशल्या को मारने की बजाय एक बङे बक्से में बन्द करके समुद्र में फ़ेंक दिया .
उधर जब वैवाहिक कार्यक्रमों हेतु कौशल्या की तलाश की गयी तो सब दंग रह
गये .कौशल्या गायब थी और बारात दरबाजे पर खङी थी अब क्या किया जाय . तब
घर के बङे लोगों ने विचार किया कि कौशल्या का मामला बाद में देखेंगे फ़िलहाल
इज्जत बचायी जाय . सो उन्होने तुरन्त छोटी बहन सुमित्रा को कौशल्या के विकल्प
के रूप में तैयार किया और गुपचुप तरीके से आपस के लोगों को समझाकर सुमित्रा
का (कौशल्या की जगह) विवाह दशरथ के साथ कर दिया . दशरथ या उनके पक्ष का
या उस राज्य के लोग इस बात को न जान सके..कुछ गिने चुने परिवार के लोगों तक
ही यह बात सीमित रही .इस तरह ये विवाह निर्विघ्न हो गया . तब लंका में बन्द देवता
कहने लगे . रावण ज्यादा अक्लमंद बनता है देखो दशरथ का विवाह हो गया अब राम
का जन्म....रावण को बेहद हैरत हुयी . उसने फ़िर सच्चाई पता की तो बात एकदम सच थी
जिस दैत्य को कौशल्या को मारने भेजा था उससे जबाब तलब किया तो उसने शपथ
पूर्वक कहा कि उसने कौशल्या को मारकर समुद्र में फ़ेंक दिया..इस बात को वह छुपा
गया कि उसने कौशल्या को मारा नहीं बल्कि जिन्दा ही फ़ेंका है . खैर तब दशरथ की
बारात समुद्र मार्ग से बङी बङी नौकाओं में आ रही थी..रावण ने एक दूसरे दैत्य को
आदेश दिया कि समुद्र में तूफ़ान उठाकर सारी बारात को तहस नहस कर दे और बारात
को डुबोकर मार डाले...इस दैत्य ने ऐसा ही किया..सारी नावें उलट पुलट हो गयी
कोहराम मच गया..और लोग इधर उधर जान बचाने की कोशिश करने लगे..दशरथ
और सुमित्रा एक टूटे बेङे पर बैठे हुये विशाल सागर में भगवान की दया पर बेङे के
साथ बहने लगे अन्य बारात का कोई पता नहीं था .
दूसरे दिन दोपहर के समय उनका बेङा एक टापू से जा लगा .तब दशरथ ने
राहत की सांस ली . लेकिन वे इस वक्त किस स्थान पर हैं इसका उन्हें पता नहीं था और
दशरथ को अभी तक ये भी नहीं मालूम था कि उनके साथ बैठी बधू कौशल्या नहीं सुमित्रा
हैं . इस तरह दो दिन बिना खाये पीये गुजर गये . न कोई नाविक आता दिखा और न ही
कोई अन्य सहायता ..तब शाम के समय सुमित्रा को एक बक्सेनुमा कोई चीज टापू के
पास से जाती हुयी दिखायी दी..दोनों ने मिलकर उसे खींचा कि शायद कोई खाने की चीज
या कोई अन्य उपयोगी चीज प्राप्त हो जाय..दोनों ने मिलकर बक्से को जतन से खोला
अन्दर से सजी सजायी हुयी एक नववधू प्रकट हुयी जिसे देखते ही सुमित्रा ने बेहद आश्चर्य
से कहा..अरे जीजी आप..कैसे..?
दशरथ भौंचक्का होकर दोनों को देख रहे थे..तब सुमित्रा ने इस राज पर से परदा उठाया
और बताया कि वास्तव में कौशल्या तो ये है ...कौशल्या ने भी आपबीती सुना दी अब ये
दो से तीन हो गये..और टापू पर किसी सहायता की आस में दिन गुजारने लगे..उधर
देवताओं ने फ़िर कहा..रावण पागल हो गया है..दशरथ को कुछ नहीं हुआ वह अपनी
दोनों पत्नियों के साथ टापू पर किसी सहायता के इन्तजार में है अब उनके घर भगवान राम
का जन्म होगा..राम इस दैत्य रावण को मार देंगे और हम मुक्त हो जायेंगे..यही भविष्यवाणी
है यही होना है .
अबकी रावण क्रोधित हो उठा उसने एक महाशक्तिशाली दैत्य को तीनों की हत्या के लिये
टापू पर भेजा और प्रमाण स्वरूप तीनों की आंखे निकालकर लाने की आग्या दी. महामायाबी
ये दैत्य जिस समय टापू पर पहुँचा उसका सामना सुमित्रा से हुआ क्योंकि ये मानव के रूप
में था अतः सुमित्रा ने बेहद मासूमियत से इसे भैया के सम्बोधन से पुकारा और धर्म भाई
बनाते हुये उसकी कलाई पर चीर बान्ध दिया..दैत्य के सामने धर्मसंकट उत्पन्न हो गया..अब
अगर वह तीनों में किसी का बध करता तो उसे भारी दोष पाप लगता..और वैसे भी उसने
सोचा कि रावण अकारण ही इन निर्दोषों को मारना चाहता है..ये भला उसका क्या अहित कर
सकते हैं..अतः उन्हें मारने का विचार त्यागकर उसने हिरन आदि जीवों की आंख रावण को
दिखा दी और कहा कि उसने काम पूरा कर दिया .
इधर लगभग पाँचवे दिन एक नाविक उधर से गुजरा..दशरथ ने ऊँचे स्वर में
कहा..ए नाविक मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूँ और यहाँ एक आकस्मिक मुसीवत में फ़ंस
गया हूँ यदि तुम किसी उचित थलीय स्थान पर हमें पहुँचा दोगे तो मैं तुम्हें मालामाल कर
दूँगा..उसने व्यंग्य से कहा..श्रीमान फ़िर से अपना परिचय तो देना..दशरथ ने दिया..
उसने कहा..आओ तुम तीनों मेरी नाव में बैठो..तुम्हें समुद्र में डुबोकर मेरा बहुत पुन्य
होगा..बङे आये इनाम देने वाले...घमन्डी राजा अच्छा हुआ तुमने अपना परिचय दे दिया
तुम्हें कोई सहायता करना तो दूर नाव पर चढने भी नहीं दूँगा...?
दशरथ को बेहद आश्चर्य हुआ...उन्होने अत्यंत विनम्रता से कहा कि ..हे नाविक तुम कौन
हो..मुझसे तुम्हारी क्या दुश्मनी है..आदि..आदि..नाविक ने कहा कि मैं उसी कैकय देश का
नागरिक हूँ जिसकी राजकुमारी कैकयी की तुमने भारी बेइज्जती की..मैं क्या पूरा कैकय
देश दशरथ के नाम से नफ़रत करता है ..तब तीनों ने मिलकर जब उसे काफ़ी समझाया
तो वह एक शर्त पर तैयार हुआ कि दशरथ उसे वचन दें कि यहाँ से उसके साथ ही वह
तीनों कैकय जायेंगे और कैकयी से विवाह करेंगे..तो उनके देश से बेइज्जती का दाग दूर
होगा...तो वह सहायता कर सकता है..वे तीनों टापू पर अधमरे से हो चुके थे..किसी
सहायता की कोई आस नजर नहीं आ रही थी अतः दशरथ ने वचन दे दिया...और वचन
के अनुसार पहले कैकय देश जाकर कैकयी से विवाह किया...इस तरह अनोखे घटनाक्रम
से दशरथ के तीन विवाह हुये ..

पुनर्जन्म कल्पना नहीं ठोस हकीकत है..?

पुनर्जन्म कल्पना नहीं ठोस हकीकत है..?

अभी लगभग दो साल पहले पुनर्जन्म की तीन प्रमुख घटनाओं से प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक
मीडिया में तहलका ही मच गया..इनमें एक शाहजहाँपुर के राजेश rajesh की थी जो अपने आपको
पूर्वजन्म का अंग्रेज साइंटिस्ट बताता था और विदेश स्टायल की अंग्रेजी यकायक बोलने लगा था.
अभी ये बात सुर्खियों में ही थी कि एक गाँव में नासा की वैग्यानिक और डिस्कवरी अंतरिक्ष यान
दुर्घटना में मृतक कल्पना चावला kalpna chawla के पुनर्जन्म की खवरों का हल्ला मचने लगा
अभी यह खवर भी ठीक से थमी नहीं थी कि एक प्लेन दुर्घटना में मृत माधवराव सिन्धियां
madhavraw sindhiya के पास ही के एक गाँव ( जहाँ प्लेन दुर्घटना हुयी थी ) में जन्म लेने
की खवर से मीडिया जगत में सनसनी फ़ैल गयी..इसके बाद भी कुछ छोटी छोटी पुनर्जन्म
की अन्य खवरें आती रहीं ..ये सब चल ही रहा था कि एन. डी. टी. वी. इमेजिन Ndtv imejin
के एक प्रोग्राम ..राज..पिछले जन्म का..raj ..pichhale janm ka ने लोगों को पुनर्जन्म की
चर्चाएं करने पर विवश कर दिया ...ये ऊपर की तीन प्रमुख घटनाएं राजेश , कल्पना चावला
और माधवराव सिन्धिया.. IBN7..INDIA T.V..ZEE NEWS..STAR NEWS..आदि
प्रमुख न्यूज चैनलों पर हफ़्तों एक सनसनीखेज news के रूप में छायीं रही .
मैंने राज ..पिछले जन्म का...का जिक्र महज इसीलिये किया है कि कोई भी जो आत्मग्यान की
तीसरी या चौथी कक्षा का भी विधार्थी student है . वो आसानी से ये बात बता सकता है कि
इस प्रोग्राम की धारणा ही एकदम बेतुके और निराधार तथ्यों पर आधारित है क्योंकि..because...अपने
पूर्वजन्म को देखने हेतु हमें स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट करनी होती है और सूक्ष्म शरीर
से कारण शरीर karan sharir में प्रविष्ट करनी होती है ..और ये योगियों का काम है ...किसी
बच्चे का खेल नहीं..कारण शरीर ही वो शरीर है जहाँ हमारे अनंत जन्मों के संस्कार एकत्र हैं
और ये सच है कि कारण में सुरती किसी तरह पहुँच जाय तो हम अपने एक क्या कई पिछले
और अगले जन्मों को देख सकते हैं ...पर जिस तरह इसको दिखाया जा रहा है उस तरह हरगिज
नहीं ..यहाँ एक बात ये बता देना उचित है कि ये बात मैं किसी अध्ययन या सुनी सुनाई बात के
आधार पर नहीं कह रहा बल्कि प्रक्टीकल बेस पर कह रहा हूँ ..इस तरह स्टूडियो के माहौल में
प्रचारात्मक उद्देश्य से किसी भी आत्मग्यान की क्रिया में प्रविष्टि नहीं की जा सकती...फ़िर कारण
शरीर में जाना तो बहुत बङी बात होती है..आपको अगर ध्यान हो तो महाभारत के एक पात्र
भीष्मपितामह की क्षमता भी अपने सौ जन्म तक उठ पाने की थी इससे ऊपर उन्हें श्रीकृष्ण
ने उठाया था ....बहरहाल ये लोग क्या दिखाते हैं...कैसे दिखाते हैं..और क्या दिखता है...इसमें
कितना सच है...कितना झूठ है..ये वही लोग बेहतर जान सकते हैं ..परन्तु मैं ये पक्का जानता हूँ
कि किसी भी आदमी को यकायक उसका पुनर्जन्म दिखाना असंभव ही नहीं नामुमकिन है..
इसके लिये साधक को एक विशेष विधान द्वारा अभ्यासी बनाया जाता है फ़िर उसको सुरती
द्वारा उठाया जाता है तब छह महीने से ...एक साल में उसको इस तरह का अनुभव होता है सो
भी साधक की स्वनिष्ठा यदि लगनशील नहीं है तो ये भी कोई जरूरी नहीं ..यह पूरी तरह समर्पण
और सुमरन ( खुद के मरने के तरीके का अभ्यास ) का मार्ग है .
लेकिन जिस समय राजेश और कल्पना चावला का मामला उछल रहा था ..मैं उन दिनों संत
समुदाय (आत्मग्यानी ) के सानिंध्य में था और एक परिचित के माध्यम से ये जिग्यासा जब वहाँ
पहुँची तो इन दोनों घटनाओं को " सत्य " बताया गया..हालांकि माधवराव सिन्धिया की बात
मेरे सामने नहीं हुयी..मेरे द्वारा इन पर विश्वास करने का कारण ये था कि एक तो मैं स्वयं ही पिछले
बीस सालों से अलौकिक साधनाओं के सम्पर्क में हूँ ..दूसरे महात्माओं ने एक बार खुश मूड में मुझे
स्व श्रीमती इंदिरा गान्धी late prime minister shrimati indira ghandhi की वर्तमान स्थिति दिखायी तथा कुछ और भी अलौकिक अनुभव कराये जिनके मद्देनजर किसी तरह के शक का कोई
प्रश्न ही नहीं था .
यहाँ एक विचारणीय प्रश्न ये है कि कोई जीव या मनुष्य जब अकालमृत्यु मरता है तो आखिर वो
कहाँ जाय...भगवान के नियम के अनुसार जब तक जीव का समय पूरा नहीं हो जाता दूसरे
शरीर में उसकी स्थिति नहीं हो सकती ..तो जो लोग अपनी आयु शेष छोङकर कालकवलित
हो जाते हैं उन्हें यमदूत लेने नहीं आते..वे अपना स्थूल देही दुर्घटनावश त्यागकर सूक्ष्म शरीर के
साथ निरुद्देश्य इधर उधर घूमते रहते हैं..इस स्थिति को भूत प्रेत योनि नहीं समझा जा सकता
और न ही उसके समकक्ष रखा जा सकता है..सूक्ष्म शरीर बिल्कुल ऐसा ही (स्थूल शरीर या मानव
शरीर जैसा ) होता है...केवल मनुष्य के लिये यह अद्रष्य होता है कुछ जीव जैसे कुत्ते घोङे बिल्ली
आदि इसको देखने में सक्षम होते हैं ..यह हल्का होता है और इसकी चलन गति कुछ इस तरह की
होती है जैसे चन्द्रमा पर होती है..यानी एक कदम उठाने पर सौ कदम के बराबर हल्के उङने जैसी
स्टायल में जीव एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करता है...भले ही अपनी जिन्दगी में वो आदमी
कभी पेङ पर चङना न जानता हो पर इस शरीर के साथ वो आराम से पेङ पर चङता है...बल्कि
अपनी सूक्ष्म शरीर की अवधि को वो ज्यादातर पेङ पर ही गुजारता है..इस सम्बन्ध में पूरी पुस्तक
लिखी जा सकती है इसलिये इतना ही लिख रहा हूँ ....कुछ समय बाद वो सूक्ष्म शरीर जीव
अपनी स्थिति का चिंतन करता है..और फ़िर अपनी वासनाओं और अन्य जीवों से अपने संयुक्त
कर्म संस्कार के आधार पर पहले से स्थापित हो चुके किसी महिला के गर्भ में पाँचवे महीने में
प्रविष्टि करता है..वह अपनी पूर्व स्थिति के अनुसार ही शरीर पाता है जैसे औरत तो औरत
आदमी तो आदमी...क्योंकि अभी उसकी मानसिक स्थिति में(उस स्तर पर) कोई बदलाव नहीं हुआ है
इस तरह फ़िर जन्म को प्राप्त होता है..आदि..इस पूरी घटना को बिलकुल कारणो सहित लिखना
लगभग असंभव है..क्योंकि एक जीव की स्थिति से उस वक्त उसमें लाखों अन्य घटक भी मिल
जाते हैं.. हाँ यदि मृतक के अपने उसी घर में संस्कार शेष है..और घर की कोई भी महिला
उस समय तीन चार महीने का गर्भकाल पूरा कर चुकी है तो निसंदेह उसका पुनर्जन्म अपने
ही घर में होगा..लेकिन यदि घर में गर्भिणी महिला नहीं है तो जीव दूसरे सम्बन्धों से कनेक्ट
हो जाता है ..आदि
मैं आपको एक किस्सा बताता हूँ जो ठीक मेरे सामने उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में शहर
मैंनपुरी में घटा है और अभी ताजा ही है..मैंनपुरी के मदारगेट पर पन्नालाल यादव नामक
सब्जी विक्रेता सब्जी की ठेल लगाते हैं..लगभग पाँच साल पहले जब ये देवी रोड पर
एक प्लास्टिक की कुर्सियों के डिस्ट्रीब्यूटर के गोदाम पर चौकीदार थे और उनका परिवार
वहीं रहता था..ये गोदाम कब्रिस्तान के एकदम निकट है और आसपास का स्थान भुतहा
समझा जाता है..इनके तीन बच्चों में सबसे छोटा पुत्र अचानक बीमार होकर मर गया
..बाद में इसने मदारगेट के सामने रहने वाले एक परिवार में जन्म लिया और बोलना
और चलना शुरु होते ही इसने अपने पूर्व माँ बाप को पहचान लिया...पहले घर के लोगों
ने इसकी बातों पर गौर नहीं किया..तब ये घर के दरबाजे पर खङा होकर उस तरफ़
देखने लगा..जिस रास्ते से इसकी माँ शाम के समय ठेले पर आती थी..दरअसल उस घटना
के बाद पन्नालाल ने वो नौकरी छोङ दी..और फ़िर से सब्जी का ठेला लगाने लगे..इस
तरह कुछ ही दिनों में बच्चे ने अपने माँ बाप को पहचान लिया..इस बच्चे के लोगों ने
कई तरह से टेस्ट लिये जिनमें यह पूरा उतरा .
पुनर्जन्म कल्पना नहीं ठोस हकीकत है..?

सब उपाय बेकार है भाई ..

सब उपाय बेकार है भाई ..

सब उपाय बेकार है भाई ..
निज अनुभव तोहि कहहुँ खगेशा .
बिनु हरि भजन न मिटे कलेशा .
कोऊ ना काहू सुख दुख कर दाता .
निज करि करम भोग सब भ्राता .
हरि व्यापक सर्वत्र समाना .
प्रेम से प्रगट होत मैं जाना .
संत मत की द्रष्टि से ये दोहे अधिक कीमती नहीं है पर संसार की
द्रष्टि से ये बहुमूल्य है क्योंकि संसारी जीव को सुख शांति की तलाश
अधिक है इसलिये इन तीन दोहों में उसकी बहुत सी समस्याओं का
हल छुपा हुआ है . निज अनुभव तोहि ..श्री शंकर जी ने गरुण से
कहा है इसलिये इस दोहे को हल्का लेना कतई अक्लमंदी नहीं है .
आप सोचिये शंकर जैसा देवता कह रहा है कि ये मेरा अनुभव है कि
विना हरि भजन के कलेश नहीं कट सकते चाहे वह कितनी बङी
हस्ती क्यों न हो..हरि भजन तो अपनी जानकारी में सभी करते है
फ़िर कलेश क्यों नहीं कटते ..इसका अर्थ ये तो नहीं है कि शंकर झूठ
बोल रहें हैं..सही बात ये है कि वो उस भजन की और इशारा कर
रहे हैं जो गूढ है . गीता में श्रीकृष्ण ने जिस भजन की और इशारा
किया ये उस भजन की बात है . शंकर भी मुक्ति हेतु इसी का उपदेश
करते हैं .
काशी मुक्ति हेतु उपदेशू , महामन्त्र जोइ जपत महेशू .
कोऊ ना काहू सुख दुख कर..जब हम सतसंगी भाई आपस में मिलकर
चर्चा करते है और कोई निगुरा या बाहरी व्यक्ति हमारे वार्तालाप में
शामिल होता है तो अक्सर ये बात अवश्य ही उठती है कि उसने उसके
साथ ऐसा कर दिया उसकी वजह से उसको ये परेशानी हुयी ..ये ही
प्रश्न लक्ष्मण ने राम से किया था कि प्रभो आप तो सब जानने वालें हैं
फ़िर ये बतायें कि भाभी ( सीता ) किस बात का दुख भोग रही है .
तब श्रीराम ने लक्ष्मण को यही जवाव दिया था . संत मत के लोग इसको
बखूबी जानतें हैं कि कोई किसी के साथ कुछ नहीं कर रहा है. जीव
परमात्मा के बनाये नियम के अनुसार अपनी करनी का ही फ़ल भोग रहा
है .अच्छा है तो फ़ल ही है बुरा है तो फ़ल ही है .
हरि व्यापक सर्वत्र .......ये कितनी अजीव बात है कि हम रामायण आदि
का अखंड पाठ आदि करते है अन्य कई तरह की उपासनाएं करते हैं पर
रामायण की इस बात पर हमारा ध्यान ही नही जाता कि भगवान सब
जगह हैं और प्रेम से प्रगट होते हैं .दरअसल इसके दो तरीके है एक तो
भगवान से सतत प्रेम करना और दूसरा सब में भगवान को ही देखना
वास्तव में यह छोटी बात लगती अवश्य है पर है बङी चमत्कारिक . मेरी
जानकारी में कई लोगों ने इस सूत्र का प्रयोग किया और बङे ही चमत्कारी
नतीजे सामने आये .दूसरी बात ये भी है कि कोई माने तो, ना माने तो इसके
अतिरिक्त और कोई मार्ग है ही नही है क्योंकि आत्मा के स्तर पर सबमें वही
परमात्मा ही है जब दूसरा है ही नही तो भेद किसके साथ हो .
ना कुछ तेरा ना कुछ मेरा चिङिया रैन बसेरा .
कितने शरीर बने बिगङे , कितने रिश्ते नाते बने बिगङे फ़िर भी तुम भरमाने
वाले खेल मैं भरमाये हुये हो ...तमाशा देखने वाले तमाशा हो नहीं जाना .
इसलिये ये सब उपाय बेकार है किसी सच्चे संत की तलाश करो उनसे प्रेम
नाम (ढाई अक्षर का महामन्त्र ) विधिपूर्वक लो फ़िर तुम्हारी सारी तलाश
खत्म हो जायेगी क्योंकि उसके पहले तथा उसके बाद न कोई था और न है
और न होगा .
एकोहम द्वितीयोनास्ति ,ना भूतो ना भविष्यति .

आत्मा के वारे में जानें ...know about your soul

आत्मा के वारे में जानें ...know about your soul

आत्मा के वारे में जानें ...know about your soul
आत्मा ( soul ) आकाश (sky )की तरह सूक्ष्म तथा सर्वत्र समाया
हुआ है .आत्मा के स्वरूप का ग्यान होने पर जीव ( man ) अपने
जीव होने के भाव को छोङ देता है . इसे (आत्मा ) जानकर जीव
का स्वभाव आत्मा के समान न जनमने वाला न मरने वाला
अविनाशी भाव हो जाता है . अविवेक अनित्य है यानि ग्यान होने
पर नष्ट हो जाता है . ग्यान बिग्यान आत्मा के ही अधीन है . जिस
प्रकार सर्वव्यापक आकाश में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संगत पाता है . उसी
प्रकार आत्मा ( soul ) भी आकाश की तरह इससे भी अति सूक्ष्म
है . बिना आत्मा की संगति के शरीर( body ) चेष्टा नहीं पाता .
आत्मा अपनी इच्छा से ही सिमट जाती है . शरीर का अस्तित्व नहीं
रहता . शरीर के द्वारा ही वह ग्यान करता है . ध्यानावस्था में सुरति
के द्वारा स्वर में शब्द को पूरक कुम्भक रेचक स्थिति को पा जाता है
फ़िर कुछ देर का अभ्यास वर्ण वाले शब्द को पार करके बिन्दु रूप में
पहुँच जाता है. बिन्दु रूप में पहुँचकर वह बिन्दु परमात्मा(god ) में
संगत पाता है . इस लिये बिन्दु (point ) के द्वारा ब्रह्म में मिलकर उस
परमात्मा का साक्षात्कार ( interview ) करता है .
साधक इन्द्रियों को एकाग्र कर लेता है तथा सुष्मणा में प्रवेश करता
है .तब सूक्ष्म शरीर सुष्मणा से ब्रह्मरन्ध्र में होता हुआ शरीर में ऊपर दसवें
द्वार होकर आत्मा में लीन हो जाता है . इन्द्रियों के सब दरवाजे बन्द करें
तब तन मन अन्दर ही जम जायेगा तथा दबाया हुआ मन ह्रदय में ही पङा
रहेगा तब प्राण के द्वारा अक्षर का ध्यान करना चाहिये .जो प्राण तथा प्राण
के परे भी है फ़िर ब्रह्मरन्ध्र से होता हुआ ध्यान को ऊपर की ओर ले जाकर
परमात्मा में स्थिर कर दें जो परमात्मा सर्वत्र सर्वशक्तिमान प्रकाश स्वरूप
आनन्द का भन्डार है . ऐसी स्थिति में योगी सुषमना से शब्द में मिलकर
शरीर से निकल जाता है तथा परमात्मा का साक्षात्कार करता है .
साधक जब ध्यानावस्था में स्थिति होकर अन्तःकरण को प्राण के समान
सूक्ष्म तथा स्वच्छ बना लेता है तब वह वाणी से परावाणी का प्रत्यक्ष अनुभव
कर उसमें लीन हो जाता है . उस परा में लीन होने पर वह एक ऐसी शक्ति
( power ) का अनुभव करता है जिसकी शक्ति से सारे संसार के जीव अपनी
क्रिया कर रहे हैं तथा प्रकृति ( nature ) भी क्रीङा करती हुयी इसी जगत
(world) में दिखायी देती है .यह सारे काम परमात्मा की सत्ता में ही
क्रियावान है .साधक सुरति से पराशब्द का बोध करता है तो वह परा में प्रवेश
होकर आत्मा का साक्षात्कार करता है .

आत्मा ज्योर्तिमय आनन्दमय है .

आत्मा ज्योर्तिमय आनन्दमय है .

आत्मा ज्योर्तिमय आनन्दमय है .


ओंकार को नेत पुकारा , यह सुन शब्द वेद से पारा .
अंडा सुन्न में सैर करायी , सो वो शब्द परखिया भाई
जो यह ओंकार शब्द है . वह वेद की वाणी से परे यानी
उससे अलग है जिसमें प्रवेश होने से जो यह अंडाकार
ब्रह्मांड है उसमें पहुँच कर परमात्मा का दर्शन कराने
वाला हैं जिसे विदेह स्थित में जानो . आत्मा सब भूत
तत्वों में निवास करती है .
आत्मा ज्योर्तिमय आनन्दमय है .
जब इन्द्रियां अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है तथा मन
बुद्धि के निर्णय से शान्त हो जाता है और अहंग चित्त में
स्थित होकर देखता है तब वह पराविधा को ही देखता है .
जो वाणियों का माध्यम परावाणी है . वह आत्मा से ही
उत्पन्न होती है जिस प्रकार आकाश का गुण वायु है आत्मा
का गुण पराविधा है .
बुद्धि आदि इन्द्रियों से सम्बद्ध होने के कारण आत्मा को साक्षी
कहा जाता है . जब बुद्धि से अविवेक दूर हो जाता है तब आत्मा
का साक्षीपन मोक्ष में बाधा नहीं डालता है .
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शून्य है क्योंकि ब्रह्माण्ड की आकृति शून्य जैसी
गोल है . इससे सारी ही आकृतियां गोल है .सूर्य , चन्द्र , तारे
प्रथ्वी सभी शून्य जैसी आकृति वाले है .सभी अण्ड गोल वृक्ष
पहाङ शून्य के समान प्रतीत होते हैं . अतः अण्ड पिण्ड ब्रह्माण्ड
सब शून्य है .
मन जब विचारों से शून्य हो जाता है तब समाधि में समा जाता
है .

अविनाशी अक्षर क्या है ?

अविनाशी अक्षर क्या है ?

अविनाशी अक्षर क्या है ?
वह शब्द जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में स्पंदन करता है सारी स्रष्टि
में समाया हुआ है .वह अविनाशी अक्षर ही स्वांस की आने
जाने की क्रिया को चलाता है तथा प्राण का कारण रूप है .
परमात्मा का अनुभव ध्यान , सुमरन, चिन्तन सुरति द्वारा
किया जाता है जब सुरति अक्षर में पूर्ण रूप से पहुँच जाती
है तब वह अक्षर से प्राण में और प्राण से सूक्ष्म भूमा में
पहुँच जाता है .
भूमा तत्व का उदाहरण - नींद में स्वप्न में आनन्द , इन्द्रियों
का आत्म बोध .
साधक इन्द्रियों को स्थिर कर प्राण में अक्षर को जानता है
अक्षर की संगत से वह बार बार अक्षर में ध्यान करता है
तब अक्षर के घर्षण से भूमानन्द का अनुभव होता है वह
भूमा आत्मा ही प्रथम पाद है .
आकाश अणुओं से भरा पङा है सुई की नोक के बराबर
खाली स्थान नहीं है . उदाहरण - सूर्य के प्रकाश में दिखने
वाले अणु परमाणु आदि .
जिस प्रकार वाष्प से बिन्दु बनता है . बिन्दु से ध्वनात्मक
शब्द उत्पन्न होता है तथा ध्वनात्मक से " हँसो " वर्ण का
रूप धारण कर लेता है . जब प्राण से प्राण टकराता है तब
एक झीना शब्द प्रकट कर लेता है .
आकाश अक्षर में स्थित है . आकाश का सूक्ष्म तत्व शब्द शून्यता
चिन्ता मोह संदेह ये सारे गुण आकाश के ही हैं .
जीव अपने को कर्ता मानता हुआ कार्य करता है इसलिये उसे
उसका भोग मिलता है . आत्म सुख में बाधा डालने वाली ये
विषय वासना ही है .

दस मुद्राओं के बारे में जाने .

दस मुद्राओं के बारे में जाने .

दस मुद्राओं के बारे में जाने .
परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की . उसी नमूना में
मनुष्य शरीर की रचना की .
इच्छानि स्रष्टि - संकल्प द्वारा स्रष्टि करना ,जिसे योगी आज भी
कर लेते हैं .
सासिद्धक स्रष्टि - इच्छानुसार शरीर बना लेना , मारीच हिरन बना .
मुद्राएं -
परमात्म साक्षात्कार के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहतें हैं .
यह दस प्रकार की है .
1 - चाचरी - आँख बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक
द्रण होकर देखना .
2 - खीचरी - जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर कर लें .
3 - भूचरी -परमात्मा का नाम ( हँसो ) अजपा जप को प्राण के मध्य ध्यान
में रखकर मनन करना .
4 - अगोचरी - कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनना .
5 - उनमनी - द्रष्टि को भोंहों के मध्य टिकाना .
अन्य पाँच विशेष मुद्राएं है . उनका साक्षात्कार प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है .
1 - साम्भवी - जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तकरण का अनुभव करना
2 - सनमुखी - संकल्प से ही कार्य होने लगे .
3 - सर्वसाक्षी - स्वयं को , तथा परमात्मा को सबमें देखना .
4 - पूर्णबोधिनी - जिसका विचार करता है उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो
जाता है . एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना .
5 -उनमीलनी - अनहोने कार्य करने की सिद्धि .
.. भय उत्पन्न होने पर निसन्देह विनाश के गाल में पहुँच जाता है क्योंकि
यह जीव के लक्षणों में संगति करता है . भय , निद्रा , मैथुन , आहार ,जब
तक ये ह्रदय से बाहर नहीं होते तब तक वह परमात्मा की पूर्ण निष्ठा
का दर्शन नहीं करता . हर जीव को मृत्यु का भय व्यापता है . इसी भय के
कारण जीव मृत्यु को प्राप्त होता है . वरना तो जीव अविनाशी है .

जीव की संरचना इस प्रकार की है .

जीव की संरचना इस प्रकार की है .

जीव की संरचना इस प्रकार की है .
जीव की संरचना इस प्रकार की है .
आकृति - तीन शरीर मुख्य है .
स्थूल शरीर - बाह्य शरीर , ये कृतिम है और खोल या आवरण मात्र है .
सूक्ष्म शरीर - ये आता जाता है . और भोग और इच्छाओं या अन्य बहुत
से प्रयोजनों के लिये आवरण धारण करता है .मत्यु के बाद यही जाता
है .
कारण शरीर - जिस कारण हेतु ये शरीर धारण हुआ है वो कारण बीज
में निहित है .
* इसके अतिरिक्त तीन शरीर और है पर वे योगियों के होते हैं . जीव
इन तीन श्रेणियों को पारकर ही उन्हें जान सकता है और वह योग अवस्था
कहलाती है .
स्थूल शरीर पाँच तत्वों का बना है . प्रथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश
शरीर में प्रथ्वी का अंश - त्वचा , हड्डी , नाङी , बाल , माँस हैं
जल का अंश - रक्त , वीर्य , पसीना , मूत्र , लार हैं
अग्नि का अंश - भूख , प्यास , आलस , नींद ,तेज हैं
वायु का अंश - चलना , बोलना , दौङना , फ़ैलाना , सिकोङना हैं
आकाश का अंश - काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय , हैं
इनकी सहायक प्रकृतियां भी हैं तथा इस सम्बन्ध में ग्यानियों में मतभेद भी
हैं पर एक नजर देखने पर इन मुख्य प्रकृतियों में कोई दोष नजर नहीं आता है .
नाभि में जो चक्र है उसमें शरीर की सारी नाङियाँ गुथी हुयीं है . उसमें संयम
करने से शरीर के सारे व्यूह का ग्यान होता है .
वक्षस्थल में कछुए की आकार की नाङी है . यहाँ साधक का चित्त और शरीर
दोनों ही स्थिर हो जाते हैं .
कण्ठ में संयम करने से अपने स्वरूप को जान लेता है तथा भूख प्यास से रहित
हो जाता है .
जिह्वा के ऊपर जो कपाल में छिद्र गया है उसे ब्रह्माण्ड कहते हैं . उसमें संयम
करने से साधक संसार सागर से उठकर स्वर्ग लोक तक विचरने वाले सिद्धों
के दर्शन होते हैं क्योंकि ब्रह्माण्ड में वयान प्राण ( वायु ) विचरण करता है उससे
सूक्ष्मता और हल्कापन आ जाता है .
भगवान शंकर ने बताया कि जितनी योनियां एवं सूक्ष्म योनियां याने चौरासी
लाख उतने ही आसन है . उनमें चौरासी श्रेष्ठ है . चौरासी में दस श्रेष्ठ हैं .
दस में चार आसन मुख्य हैं .

जीवात्मा का प्रमाण लिंग रूप में पाया गया है

जीवात्मा का प्रमाण लिंग रूप में पाया गया है

जीवात्मा का प्रमाण लिंग रूप में पाया गया है
जीवात्मा का प्रमाण लिंग रूप में पाया गया है . वह देखने में लिंग जैसा
प्रतीत होता है . लिंग शरीर प्रकृति के साथ सम्बन्ध हो जाता है तो
जनम मरण का चक्कर आरम्भ हो जाता है . इस जीवात्मा को अंगूठे
के आकार वाला देखा गया है .
जीवात्मा संकल्प के आधार पर आगे बङता है . योगी संकल्प से ही
एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है .
जब जीव आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तब वह जीव भाव को
त्यागकर अपने अविनाशी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है .
योग साधना रत साधक कुम्भक पूरक रेचक के अभ्यास के द्वारा ओंकार
स्वरूप को पाता है . ओंकार को नाद में लय देखता है . ओंकार जब
नाद में लय हो जाता है तब नाद प्राण की सूक्ष्मता का भाष करता हुआ
बिन्दु रूप वाले एक रूप परमात्मा से मिले हुये बिन्दु में पहुँच जाता है
बिन्दु के टूट जाने पर वह आत्मा में संगत होता हुआ जीव को अपने
स्वरूप का दर्शन कराता है इसलिये उस तत्व को जानों जिससे प्राण नाद
तथा अक्षर उत्पन्न हुआ है जिसे जानकर वह जीव ब्रह्म की संग्या वाला
हो जाता है फ़िर वह अपनी इच्छा से आता जाता है .वह बन्धन मुक्त होकर
आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक रूप को धारण करता है .

कम्पन ..वायव्रेशन को जानें .

कम्पन ..वायव्रेशन को जानें .

कम्पन ..वायव्रेशन को जानें .
जो यह पढने सुनने या अनुभव में आने वाला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है .
वह दो ध्रुव वाला है . इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ऐसा स्पंदन हो
रहा है यानी ब्रह्माण्ड में एक कंपन वायव्रेशन हो रहा है . यह स्पंदन
आत्मा के कारण ही ब्रह्म के होने से उत्पन्न हुआ है . जो सारे जल थल
आकाश वायु प्रथ्वी सूर्य चन्द्र तारे लोक लोकान्तर इस परमात्मा के
कंपन से गति कर रहे हैं . जैसे हवा की गति के कारण जल में लहर
पैदा हो जाती है . यही स्पंदन जीवात्मा के शरीर में स्वांस की क्रिया
को सक्रिय किये हुये है . इस स्पंदन में ही अक्षर की उत्पत्ति का होना
संभव है तथा शरीर में स्वांस के आने तथा जाने पर अक्षर प्रकट हो गयें
हैं जिससे शरीर की सारी क्रियायें हो रही हैं . इस स्पंदन से ही वायु
गति को धारण किये हुये है . स्पंदन में ही सुरति को प्रवेश किया
जाय तो जिससे यह स्पंदन हो रहा है उसका कारण पारब्रह्म ही है .
उसका साक्षात्कार हो जाता है .यही स्पंदन पारब्रह्म के साक्षात्कार
करने का माध्यम रूप है . जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वह कंपन करता है .
यानी स्पंदनमय है . इसके भय से ही सूर्य तप रहा है . प्राण गति
कर रहा है . जिससे देवता दैत्य पशु पक्षी तथा कीट सभी लोकों में
कंपन हो रहा है .
जो जीव भाव भाव को छोङकर शुद्ध चेतन अवस्था को पा जाता है
जो जाग्रत सुषुप्त स्वप्न इन तीनों अवस्थाओं के परे तुरीय अवस्था में
स्थित रहता है तथा भय निद्रा मैथुन आहार आदि में लिप्त नहीं रहता
है . एवं जो अपने स्वरूप को पहचान लेता है . वह सीधा ब्रह्मरन्ध्र
मार्ग से होता हुआ दसवें द्वार से निकलकर ब्रह्मालोक में जाता है .तथा
जाने के पहले संकल्प के आधार पर स्थित हुआ पुनः उसी शरीर में आ
जाता है ऐसा पुरुष जीवन मुक्त होकर जनम मरण से मुक्त शरीर में ही
हो जाता है .
विधाओं में परा विधा ही स्वरूप है जो मेरे में संगति करती है यह विधा
सब विधाओ की माँ है क्योंकि यहाँ से ही तीनों प्रकार की वाणियाँ
मध्यमा पश्यन्ति बैखरी प्रकट हुयी है . परा वाणी का एक सिरा शब्दों
को प्रकट करने वाला एवं एक सिरा बिन्दु पर रखा हुआ है . जब साधक
इस परा विधा के अभ्यास के द्वारा शब्द में लीन हो जाता है तब वह परमात्मा
के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है .
जब परमात्मा एक है तो उसका नाम भी एक होना चाहिये
वास्तव में उस परमात्मा का नाम व स्वरूप एक ही है .
जीव एक शरीर छोङने से पहले दूसरे शरीर की रूपरेखा में
स्पर्श करता है . जब जीव देहाभिमान से रहित हो जाता है तब वह
अपने अन्तर में पूरी तरह प्रवेश कर जाता है .
ओंकार से शरीर की रचना हुयी है .
ऊँ - यह ऊँ पाँच मात्राओं वाला है जिसमें तीन वर्णात्मक तथा चौथी
सत्य एवं पाँचवीं मात्रा ध्वनात्मक रूप में है . जैसे अ उ म (ँ ) (ं )
आदि पाँच मात्राओं से मिलकर ऊँ की रचना हुयी है . अ से ईश्वर भाव
उ से जीव भाव म से प्रकृति भाव अर्धचन्द्र से सत्य भाव नित्यता को
दर्शाने वाला बिन्दु रूप व्यापक सर्वत्र परब्रह्म का विभुवत स्वरूप हैसाधक ऊँ को इस रूप में समझकर लम्बे स्वर से उच्चारण कर
परमात्मा में निष्ठा रखता है तो मुझ परमात्मा को सर्वग्य को जान
लेता है .
जव जीव अपनेपन के भाव को छोङकर शरीर से निकलने एवं
प्रविष्ट होने की विधा में पारंगत हो जाता है तब उसे अलग होने में पल का
समय नहीं लगता वह जनम मरण और मृत्यु को लाँघकर मुक्त रूप का
साक्षात्कार कर लेता है उसकी इन्द्रियां अपने आप उससे संगति करती
है . मुक्त पुरुष सम्पूर्ण ब्रह्माणड में अपनी अखण्ड शक्ति के साथ
विचरने लगता है .
जनम मरण से रहित मुक्त आत्माएं संसार में निवास करती हैं

परमात्मा का नाम क्या है ?

परमात्मा का नाम क्या है ?

परमात्मा का नाम क्या है ?
नाम - परमात्मा का नाम जिह्वा के द्वारा उच्चारण में आने वाला नहीं .
जबकि सारे वर्ण उच्चारण में आते हैं . वह नाम ध्वनात्मक रूप वाला
प्राण में निवास करता है जिससे वाणी आदि उत्पन्न हुयी . हम सारे नाम
जानते हैं . राम ,कृष्ण , ईश्वर , खुदा ,गाड , बुद्ध ,परमात्मा , भगवान
आदि को ही उस परमब्रह्मपरमेश्वर का नाम समझते हैं .
ब्रह्म राम ते नाम बङि , वरदायक वर दान .
राम चरित सत कोट मह , लिय महेश जिय जान .
यह जो परमात्मा का नाम है वह राम से बङा तथा ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ है .
इससे यह सिद्ध होता है कि नाम कोई और है जो राम अक्षरों से भी
विलक्षण है क्योंकि नाम के ही प्रभाव से राम के चरित्र को शिवजी ने
सतकोट में ही जान लिया है . ऐसा वह नाम सबका वरदान तथा वरदाता
है . ऐसा वह प्रभावशाली परमात्मा का नाम है .
जासु नाम सुमरति एक बारा , उतरहिं नर भव सिन्धु अपारा .
राम नाम मनि दीप धरु , तुलसी भीतर बाहिरहु जो चाहिय उजियार .
जीभ के आखिरी सिरे रखकर यानी प्राण के ध्वनात्मक नाम का दहलीज
पर रखकर ध्यान करें तो अन्दर बाहर दोनों और उजाला हो जायेगा .
ऐसा वह नाम गुण वाला है .

शरीर का ध्रुव प्राण है . प्राण का केन्द्र आत्मा है .

शरीर का ध्रुव प्राण है . प्राण का केन्द्र आत्मा है .

शरीर का ध्रुव प्राण है . प्राण का केन्द्र आत्मा है .
शरीर का ध्रुव प्राण है . प्राण का केन्द्र आत्मा है . जब शरीर
की स्थिरता होती है तब प्राण का सूक्ष्म रूप साफ़ साफ़ प्रतीत
होने लगता है . जब वह प्राण का सूक्ष्म रूप ही जब जीव को
सुरति के द्वारा भाषने लगता है तब आत्मा का साक्षात्कार होने
लगता है क्योंकि आत्मा प्राण से भी अति सूक्ष्म है .सूक्ष्म आत्मा
में प्राण के प्रवेश होने पर प्रकाश होने लगता है .
सूक्ष्म द्रष्टि वाले पुरुषों द्वारा सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से परमात्मा
देखा जाता है क्योंकि परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है .
साधक सुरति पर सवार होकर अपने अन्तर में देखता है तथा
प्राण का अभ्यास करता है तब वह एक अदभुत ध्वनिमय शब्द को
पाता है . वह ध्वनिमय शब्द देर तक अनुभव में आता है . तब वही
लम्बा अभ्यास भूमा का रूप धारण कर लेता है .
जो यह आत्मा से उसका स्वरूप पाँच स्वरूपों में आच्छादित किया
गया तथा इसका स्वरूप विराटमय है . एक विराट प्रकाश का आलोक
जिसमें पाँच महाभूत आकाश , वायु , जल प्रथ्वी , अग्नि आदि
सम्मिलित है . यह पाँच कोष वाला है . प्राणमय , मनोमय ,
ग्यानमय , विग्यानमय , आनन्दमय पाँच कोषों में व्यापक स्वरूप
वाला है .
ध्यान में-प्राण में प्रवेश कर प्राणमय कोष में , तब प्राण सूक्ष्म प्राण
में अन्तःकरण होने के कारण मनोमय कोष में मन निर्मल- मन निर्मल
हो तो ग्यानमयकोष में , स्वतः ग्यान का आनन्द , ग्यानमय कोष से
विग्यानमय कोष में .
इन चारों के बाद परमात्मा के वास्तविक सत्य सर्वत्र तथा निरन्तर
अविनाशी आनन्द मय कोष में पहुँचकर परमब्रह्म परमात्मा को
भलीभांति पाकर आनन्दित हो जाता है .
परमात्मा ही शरीर रूपी वृक्ष पर जीव के साथ ह्रदय में बैठा हुआ
है . साधक अभ्यास के द्वारा अन्तःकरण का एक भाव होकर एक दिशा
में चलता है तब वही दिव्य नेत्र अन्तर ही ह्रदय में अपनी आत्मा के
दर्शन करता है .
जब मनुष्य आत्मतत्व का दर्शन करने के अभ्यास में लग जाता है तब
अचेतन शरीर आदि पदार्थों से उसका मोह छूट जाता है तब वह ग्यान
नेत्रों के द्वारा अपने आत्म बल को देखता है .

शब्द क्या है ?

शब्द क्या है ?
सबद सबद सब कोय कहे , वो है सबद विदेह .
जिह्वा पर आवे नहीं , निरख परख कर लेह .
शब्द का तात्पर्य है अक्षर यानी अविनाशी तत्व जो सदा रहने वाला है . जो जगत
का कारण रूप है . वह शब्द ही सारी स्रष्टि लोक लोकांतरों तथा प्रथ्वी आकाश
आदि का मिला हुआ गोल रूप सबसे घिरा हुआ आलोक प्रतीत होता है . वह ब्रह्माण्ड ही है
इसमें दो ध्रुव है . एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव के बीच एक ऐसा स्पंदन है . जिसमें अक्षर
रूप ही स्पंदन है . यह शब्द दो प्रकार का है . वर्णात्मक , ध्वनात्मक .
स्वांस लेने और छोङने में जो शब्द है वो वर्णात्मक है . ध्वनात्मक ध्वनिमय है .
घन्टा में हथौङा मारने से एक ध्वनि पैदा होती है . वैसी ही ध्वनि इस सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड में लगातार समायी हुयी है . जो ह्रदय भाव से लगातार प्रतीत होती है
यानी तत्व बोध का मार्ग रूप है . आकाश का गुण शब्द है . इसलिये यह शब्द सब
जगह आकाश होने के कारण समाया है . शब्द में सुरति के बांधने से सब प्रकार
के ग्यान हो जाते हैं और यह अक्षर अविनाशी है जो कभी भी नष्ट नहीं होता है .
शब्द के बारे में संतो ने भेद करके बताया कि एक शब्द घटाकाश में तथा एक आकाश
में निवास करता है . जिसे निःअक्षर कहा गया है .
सबद सबद सब कोय कहे , वो है सबद विदेह .
जिह्वा पर आवे नहीं , निरख परख कर लेह .
शब्द का वाक्य सब लोग कहते हैं .परन्तु जो वास्तविक अक्षर है . वह विदेह है
यानी शरीर के आखिरी सिरे पर प्रकट हो रहा है . जिसको देख और पहचान ले
जो जिह्वा पर नहीं आता और न ही वह घट वाले शब्द जैसा है . वह प्राण के वाक्य
से सूक्ष्म सर्वत्र समाया हुआ है . उसे ग्यानी ही जान सकता है . जिसे आँख खोलकर
तथा कान के बिना प्रत्याहार से खुले रूप में ही प्रतीत होने वाला है . ऐसा वह
सुन्न में तथा सुन्न के पार स्थित है .
कुदरती काबे की तू महराब में सुन गौर से
आ रही है धुर से सदा तेरे बुलाने के लिये
क्यों भटकता फ़िर रहा तू ए तलाशे यार में
रास्ता सहरग में है दिलवर पै जाने के लिये .
कुदरत ने कावा रूपी शरीर दिया है . इसमें सुन . यदि तू उस शब्द को ध्यान से सुनेगा
तो जो उस धुर से यहाँ तक जो ध्वनात्मक शब्द हो रहा है . वह तेरे ध्यान पर पङ जायेगा
और यह भी महसूस होगा कि वह विदेह शब्द धागे की तरह सम्बन्ध में किये
हुये है . वह बुला रहा है .उससे मिलकर खुदा से मिल जा . जो साहरग
का मार्ग दसवें द्वार से होकर गया है . उसमें निर्भय होकर रम जा .
रास्ता तय होने में कोई समय नहीं लगता .उस परमात्मा का साक्षात्कार
प्रवेश होने पर क्षण में ही हो जाता है .
जहाँ पाँच तत्वों की गाँठ बनती है वहाँ जीव में चेष्टा होने लगती है .
ब्रह्म में प्रीत न होकर बाह्य विषयों में आसक्ति है तभी तक विकल्प से उत्पन्न
यह जगत दिखायी देता है . ब्रह्म में चित्त की स्थिरता होने पर केवल
ब्रह्म ही दिखायी देता है .
राग , द्वेश , काम ,क्रोध . लोभ , मोह , छह झूलों में झुलाकर ही ये काल
क्रीङा कर रहा है .

संजीवनी विधा क्या है ?

संजीवनी विधा क्या है ?

संजीवनी विधा क्या है ?
जीव के स्थूल शरीर में जो सुषमना नाङी नाभि से लेकर टेङी मेङी
नासिका तक आती है इसलिये इसे वक्रनाल भी कहा गया है . इसी
नाङी में प्राण के द्वारा श्वसन हो रहा है उस प्राण के टेङी मेङी नाङी
में टकराने से एक शब्द प्रतीत होता है . वह दो वर्णों वाला है .वह
बाहर के शून्य अविनाशी अक्षर की संगति से प्रकट हुआ है और नाद
में उसी में मिल जाता है जैसे घण्टी में हथौङा मारने पर घन्टी में
एक शब्द प्रकट होता है और उसी पल ध्वनि रूप बनकर शून्य में पहुँच
जाती है . वैसे ही उस स्वर में प्रवेश होने से इन्द्रियों में स्थिरता आ
जाती है और उस स्थिरता के बाद शरीर का ध्यान तक नहीं रहता है .
तब जीव ध्वनात्मक सुरंग में प्रवेश होकर ब्रह्म से मिल जाता है यानी
स्वर में जब ध्यान पहुँचता है उस समय ध्वनात्मक सुरंग प्रतीत होता
है . तब वह विदेह सर्वत्र व्यापक सुरंग में विलीन हो जाता है . जो प्राण
को उत्पन्न करने वाला तथा प्राण से भी परे प्राण का आधार ध्वनिमय
विराट पुरुष का प्राण शब्द है . वह घट का शब्द नहीं तथा न वर्ण
वाला है .
वह सदा एकरस , विदेह तथा व्यापक अति सूक्ष्म एवं अति लम्बा लगातार
होने वाला स्वर है . यहाँ पर यह भी कहना पङता है कि उसका ध्यान
विराट पुरुष को ध्येय बनाकर करना होगा . उसका मरम सहज योग वाला
है . क्योंकि तालू में जो ऊपर की ओर छिद्र गया है . वह एक रास्ता नासिका
की इङा पिंगला नाङियों में मिल गया है और एक सीधा ऊपर की और
सहस्रदल कमल में तथा उसी से सटा हुआ एक सहज रास्ता दसवें द्वार से
होता हुआ ऊपर की ओर धुर तक गया है . वही विदेह द्वार है .
वहाँ से ही योगीजन ध्वनात्मक शब्द को पकङकर यानी प्राण में जो कंपन करने
वाला है . निरन्तर तथा सनातन स्रष्टि का कारण है तथा प्राणों का प्राण है .
उसमें ध्यान लगाकर विराट पुरुष में लीन हो जाते हैं . ऐसी स्थिति हो जाने
पर उसे काल नहीं मारता क्योंकि वह काल से भी परे विचरण करते
हैं . काल समय को कहा गया है .समय सूर्य से उत्पन्न हुआ है .
इसलिये वह देहमुक्त योगी सूर्य से भी परे लोकों में जाकर उससे भी आगे
धुर तक जाता है तथा फ़िर वापस लौट भी आता है . वह इस प्रकार बार बार
मृत्यु को प्राप्त होकर तथा पुनः जनम को धारण होने वाला मृत्यु तथा जनम
के मरम को जानकर क्रीङा करता हुआ सारे बन्धनों से मुक्त एकरस निरन्तर
सच्चिदानन्द भाव को प्राप्त हो जाता है . वास्तव में वही मेरा परम स्वरूप है .
इसको पाकर सबको पाता है . इसे संजीवनी विधा , पारब्रह्म ग्यान आदि
सनातन , विराट पुरुष के स्वरूप का माध्यम तथा बोध बताया गया है .

शरीरमें चक्रों की स्थिति क्या है ?

शरीरमें चक्रों की स्थिति क्या है ?

शरीरमें चक्रों की स्थिति क्या है ?
पाँच तत्वों से बने इस शरीर के अन्दर चक्रों का प्रतिपादन इस प्रकार है .
शरीर में गुदाद्वार व लिंग के बीच " स्वाधिष्ठान चक्र " है . इसमें गणेश
का निवास है . लिंगदेश में " मूलाधारचक्र " है . जिसमें ब्रह्मा का निवास
है जो स्रष्टि की उत्पत्ति करता है . नाभि में " मणिपूरक चक्र " है . जिसमें
शक्ति का निवास रहता है . यहाँ पर कुण्डलिनी भी चौबीस नाङियों के
सहित निवास करती है .नाभि के ऊपर उदर में " अनाहत चक्र " है जिसमें
पार्वती सहित शंकर निवास करतें हैं और संहारकर्ता की भूमिका निभाते है.
और ह्रदय देश में कण्ठ के नीचे "विशुद्धचक्र " है . जिसमें विष्णु भगवान जो
स्रष्टि का पालन करते हैं . वह इस क्षीर सागर में निवास करते हैं .
कण्ठ पर जीव निवास करता है . जो शरीर को धारण किये हुये शरीर में
व्यापक है . मुख में कण्ठ के ऊपर तालु में एक छिद्र जो ऊपर की ओर गया
है जिसे " ब्रह्मरन्ध्र " भी कहा जाता है . उसका द्वार ही "व्योमचक्र" है .
जहाँ सरस्वती निवास करती है . दोनों भोहों के बीच में "आग्याचक्र" है .
जहाँ गुरुदेव का निवास है .इसके ऊपर चोटी पर" सहस्रारचक्र " है जिसे सहस्रदल
भी कहते हैं जहाँ हजार पँखुङियां है जिसके बीच में " हंग " नामक शक्ति रहती
है . उसके ही प्रभाव से सारे शरीर में चेतना पहुँचती रहती है . " हंग " का बिम्ब
पहले आग्याचक्र में पङता है जिसमें दो पँखुङी का कमल है . तिरछा बिम्ब पङने
के कारण दो शब्द प्रकट हुये " हंग क्षंग " फ़िर उसका प्रतिबिम्ब नाभि पर पङा
बीच में सभी चक्रों पर शब्द का ऐसा प्रताप हुआ कि सारे चक्रों पर शब्द प्रकट
हो गया .
चक्रों पर संयम करने से होने वाले लाभ क्या है ?
नाभिचक्र - नाङियों के ग्यान में पारंगत , शरीर की धातुओं का ग्यान , कुण्डलिनी
शक्ति जाग्रत .
ब्रह्मपुर , वक्षस्थल - चित्त तथा शरीर स्थिर .
कण्ठ - भूख प्यास पर विजय , जीव के स्वरूप को जानना .
तालू के छेद , व्योमचक्र - सूक्ष्म स्वरूप को जानना , इसमें प्रवेश होकर दसवें
द्वार से होकर स्वर्ग तथा प्रथ्वी के बीच स्थित सभी सिद्ध लोगों को देखता हुआ
लोक लोकांतरों में प्रवेश हो ब्रह्म में मिल जाता है .
आग्याचक्र , दोनों भोहों के बीच - त्राटक सिद्ध कर लेता है .
सहस्रदलचक्र - आठों सिद्धियां , नौ निधियां , काफ़ी समय तक प्राण खींचकर
समाधिस्थ रह सकता है .

शून्य में हँस का जनम हुआ है

शून्य में हँस का जनम हुआ है
शून्य में हँस का जनम हुआ है जिस प्रकार आकाश में वायु की संभावना
है तथा शरीर में जो परावाणी स्वतः अपना कार्य स्वांस को चलाने का
कर रही है उसी प्रकार से बाहर जिह्वा के द्वारा बल देने पर वाक्य
पैदा हो जाते है यानी शरीर के बाहर शून्य व्यापक ब्रह्म सर्वत्र समाया
हुआ है . उससे ही शरीर में प्रवेश होने से " सो " तथा फ़ेंकने पर " हंग "
शब्द उत्पन्न होते हैं . कहने का तात्पर्य यह है कि शून्य से ही स्वांसा " हँसो "
का उच्चारण कर रही है .
शून्य आकाश से प्राण में " हँस हँस " इस मन्त्र का उच्चारण करती हुयी स्वांस
में बहती है . इस प्रकार से प्राणायाम का अभ्यास करने वाला पुरुष रात दिन
स्वांस प्रश्वांस के साथ 21600 जप सर्वदा करता है .
सत्संग का आशय परमात्मा के संग से है चाहे वह परमात्मा की वाक द्वारा
विवेचना करने में या समाधि द्वारा साक्षात्कार करने को ही सत्संग कहा जाता
है . वह नाम या रूप के प्रसंग से परिपूर्ण हो यानी परमात्मा का निर्णय किसी
भी भाव से किया जाय वह सत्संग ही है .
ग्यानी पुरुष को चाहिये कि वह साधक की बुद्धि के आधार पर ही उसके मनन चिन्तन
निदिध्यासन की उपेक्षा करे क्योंकि जीव में अलग अलग निष्ठा होती है .
भावनात्मक साधना को करता है और प्रतीक उपासना को ग्रहण करता है .
साधना करने वाले की बुद्धि परीक्षा करके उसे वैसे ही परमात्मा का उपदेश
करना चाहिये .
बुद्धि मल विक्षेप आवरण से ढकी होती है जब यह आवरण हट जाते हैं तो
परमात्मा में स्वतः निष्ठा हो जाती है .

सुरति क्या है ?

सुरति क्या है ?

सुरति क्या है ?

जब अन्तकरण स्थिर होकर किसी ओर चलता है . यानी मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार
एक होकर संगत की इच्छा करतें हैं . उसे सुरति कहा जाता है .
उस सुरति से अंतर में देखो तो जीवात्मा का रहस्य मिल जाता है . जीव के
रहस्य को जानकर पारब्रह्म परमात्मा का रहस्य या स्वरूप पहचाना जा सकता है .
जीव कंठ देश में निवास करता है .
जब साधक के ह्रदय में अभ्यास के द्वारा शान्ति की धारा बहने लगती है तब साधक
शरीर का ध्यान न रखकर परमात्मा में निष्ठा करता हुआ संसार में विचरण
करता है यानी सुरति के द्वारा अंतकरण में शून्यता प्रतीत होने लगती है तथा
जगत निस्सार लगता है तब साधक अपने साधन में संगत होकर संसार में
विचरता है . यही योगीजनों का क्रीङा रूप है ध्यान मनन चिन्तन सुमरण
करता हुआ अन्य जीवों का भी उद्धार करता हुआ अन्दर बाहर विचरता है .

तप करने का अर्थ ये है कि...

तप करने का अर्थ ये है कि...

तप करने का अर्थ ये है कि...
शरीर और इन्द्रियों को तपाने से शक्तियों का संचय होने लगता है .तपाने या
तप करने का अर्थ ये है कि मन को प्राण में और प्राण को परमात्मा में लगायें
जब प्राण में प्राण का हवन किया जाता है तो प्राण में प्राण के संगत से प्राण
सूक्ष्म होने लगता है तब इन्द्रियां शान्त होने लगती हैं .मन अपने दौङने की
गति पर रुक कर चलता है तब बुद्धि में शुद्धता आने लगती है यानी प्राण व
इन्द्रियों की गति समान होने लगती है . तब शुद्ध ध्यान परमात्मा की ओर
चलता है और उस ध्यान से सारतत्व का बोध होने लगता है .
लम्बा स्वर जो देर तक प्रतीत होता है . वह ध्वनि को प्रकट कर लेता है .
सपेरा बीन में लगातार फ़ूँक मारकर ऐसी ध्वनि पैदा करता है तो सर्प मस्त
होकर शरीर का ध्यान खो देता है इसी प्रकार शरीर रूपी बाँसुरी में जिसमें सात
स्वर ऊपर की ओर और दो नीचे की ओर हो रहे हैं . उन दो नीचे वालों में
एक सामने खुला , दूसरा नीचे मुख किये हुये है . ऐसी शरीर रूपी बाँसुरी में
फ़ूँक मारता है तब इस शरीर रूपी बाँसुरी में वाक (वाणी ) पैदा हो जाती है
जब स्वर निरन्तर ध्वनि करता है तब उस स्वर में ध्यान की संगति हो जाती
है .

मोक्ष का द्वार कहाँ है



तुलसी रामायण मैं लिखा है
बड़े भाग मानुष तन पावा ,सुर दुर्लभ सद ग्रंथन ग़ावा ।
साधन धाम मोक्ष का द्वारा ,पाय न जेहि परलोक संवारा ।।
सद ग्रंथो मैं वर्णित देवताओं के लिए दुर्लभ ये मनुष्य शारीर हमे बड़े भाग्य से मिला है । ये पहली पंक्ति का अर्थ है और सामान्य है । लेकिन इसकी दूसरी पंक्ति गूड है । साधन धाम मोक्ष का द्वार ये शारीर है ।
इस शारीर से क्या साधन हो सकते है । और इसमें मोक्ष का द्वार कहाँ है ।
वास्तव मैं मोक्ष का रास्ता दसवें द्वार से होकर जाता है ।
हमारे शारीर के ९ द्वारों से हम परिचित है और इन्ही मैं हम वर्तते है
दो द्वार कानों के छेद है । म्रत्यु के उपरांत यदि आत्मा इन द्वारो से निकलता है तो विभिन्न प्रकार की प्रेत योनियों मैं जाता है क्योंकि शब्द कानो का विषय है और प्रेत आत्मा की पहचान शब्द से ही होती है ।
दो द्वार आँखों के छिद्र है इन से प्राण निकलने पर जीव कीट पतंगा योनियों मैं जाता है क्योंकि प्रकाश आँखों का विषय है और कीट पतंगों को प्रकाश से लगाव होता है ।
दो द्वार नाक के छिद्र है इनसे प्राण निकलने पर जीव हवा मैं रहने वाले पछियों की योनी मैं जाता है क्योंकि वायु नासिका का विषय है और पछि वायु मैं ही रहते है ,
एक द्वार मुंह का छिद्र है यहाँ से प्राण निकलने पर जीव पशुवत योनियों को प्राप्त होता है क्योंकि मुंह का कार्य सब प्रकार से शारीर का पोषण करना ही है और यही काम पशु भी करते है ।
एक द्वार लिंग या योनी का होता यहाँ से प्राण निकलने पर जीव जल जीवों की योनियों मैं जाता है क्योंकि इन इन्द्रियों से मूत्र के रूप मैं जल ही निकलता है ।
एक द्वार गुदा का होता है गुदा से प्राण निकलने पर जीव नरक को जाता है क्योंकि गुदा से विष्ठा के रूप जो गन्दगी निकलती है वह नरक के सामान ही होती है
क्योंकि जीव इन्ही नो द्वारों मैं वरताता है इसलिए वह म्रत्यु के समय इन्ही से निकल जाता है और बड़ा कीमती ये मनुष्य शारीर व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है ।
मोक्ष का दसवां द्वार गुप्त है और इसी शारीर मैं है । अगर मनुष्य उसको जान ले और गुरु की बताई साधना कर ले तो वह फिर से मनुष्य जन्म का अधिकारी हो जाता है । और यदि साधना मैं थोड़ी ऊँचाई प्राप्त कर ले तो जन्म मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है ये दोनों ज्ञान ढाई अक्षर के महामंत्र से होते ही जिन्हे केवल सतगुरु से ही प्राप्त किया जा सकता है ।

नाम की महिमा

नाम की महिमा

नाम की महिमा
यहाँ नाम का अर्थ ढाई अक्षर के महामंत्र से है
वास्तव में जीव (मनुष्य) की अमरलोक से
बिछ्ङ्ने के बाद काग व्रति हो गयी और ये
अपना अमी आहार छोङकर विष्ठा रूपी वासना
में मुंह मारता फ़िरता है .
सतगुरु इसे इसकी वास्तविक हैसियत बताते हैं.
और काग से हंस बनाने के लिये महामन्त्र की दीक्षा
देते हैं.ये दीक्षा हंस दीक्षा कहलाती है.इसका रहस्य
ये है कि जीव सार और असार में फ़र्क जानने लगता
है.हंस के बारे में सब जानते हैं कि वो दूध का दूध और
पानी अलग कर देता है.यानी दूध पीकर पानी छोङ
देता है.
इस नाम का जिन दोहों में जिक्र है.वे निम्न हैं.
कलियुग केवल नाम अधारा.
सुमरि सुमरि नर उतरिहं पारा. तुलसी रामायण
महामंत्र जोइ जपत महेशू
काशी मुक्ति हेतु उपदेशू
मन्त्र परम लघु जासु वश विधि हरि हर सुर सर्व.
मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व.
उल्टा नाम जपा जग जाना.
वाल्मीक भये ब्रह्म समाना.
कहां लग करिहों नाम बङाई
सके न राम नाम गुण गाईं
सबहिं सुलभ सब दिन सब देशा
सेवत सादर शमन कलेशा (गुप्त है)
उमा कहूं में अनुभव अपना
सत हरि नाम जगत सब सपना
औरऊ एक गुप्त मत ताहिं कहूं कर जोर
शंकर भजन बिना ना पावे गति मोरि
नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं
करहु विचार सुजन मन माहीं
पायो जी मेंने नाम रतन धन पायो ..मीरा
नाम रसायन तुम्हरे पासा..हनु..चालीसा
नाम लिया तिन सब लिया चार वेद का भेद
बिना नाम नरके पढ पढ चारों वेद..कबीर
और भी बहुत से दोहे है.

ये मन सबसे बङा भिखारी है .

ये मन सबसे बङा भिखारी है .

   एक राजा के पास एक बकरा था .राजा उस बकरे को बेहद
चाहता था .एक बार उसने एलान किया कि जो भी उसके
बकरे को अफ़रा (खाने से इतना पेट भर देना कि कुछ भी
खाने को जी न करे और खाने की तरफ़ देखने की भी इच्छा
न हो ) लायेगा उसे बहुत सा सोना इनाम देंगे . बहुत लोग
इनाम के लालच में बकरे को जंगल ले जाते और पूरे दिन
बढिया बढिया पत्ते घास आदि खिलाते और शाम को ये सोचकर
कि अब बकरा बेहद अफ़र गया है ,राजा के पास ले आते .
बकरा अफ़र चुका है , इसके परीक्षण के लिये राजा थोङे
पत्ते हाथ में लेकर बकरे के मुँह के पास लाता और अपने स्वभाव
के अनुसार बकरा पत्तों की तरफ़ मुँह बङा देता और प्रतियोगी
हार जाता . एक चतुर आदमी ने कहा कि वह राजा के बकरे
को अफ़राकर लायेगा . वह बकरे को अपने साथ जंगल ले
गया और हाथ में एक डंडा ले लिया , जैसे ही बकरा किसी
चीज को खाने की कोशिश करता वह आदमी उसके मुँह में
डंडा मार देता . बेहद भूखा होने पर भी उसने बकरे को एक
तिनका तक न खाने दिया .खाने की तरफ़ मुँह बङाते ही वह
फ़ौरन उसके डंडा मारता..इससे डरकर बकरे ने भूखा होने के
बाबजूद भी खाने की तरफ़ देखना भी छोङ दिया..शाम को
वह आदमी बकरे को लेकर राजा के पास पहुँचा और बोला
कि इसका पेट भर चुका है..परीक्षण के लिये राजा ने पत्ते
बकरे के मुँह के पास किये तो मार की याद आते ही बकरे ने
मुँह फ़ेर लिया..राजा ने कहा कि तुमने वास्तव में बकरे को
अफ़रा दिया है..
वास्तव में हमारे मन की हालत ठीक ऐसी ही है इसे कितना ही
खिलाओ ये त्रप्त नहीं होता है..ये सबसे बङा भिखारी है..अच्छी
तरह जानते हुये भी कि बहुत की आवश्यकता नहीं है ये तमाम लोभ
लालच में फ़ँसा रहता है और जीव को अंत में नरक में ले जाता है
वास्तव में इसके चंगुल में ही फ़ँसकर जीव की ये दशा हो गयी..
जरा सोचो जब रात को हम आराम से लेटे होते हैं तब भी ये कल्पना
से हमें तरह तरह के लोभ लालच में ले जाकर सपने दिखाता है
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय .
भक्ति करे कोई सूरमा जाति वर्ण कुल खोय .

story 2 विश्व को जीतना सरल है ,मन को जीतना कठिन है

विश्व को जीतना सरल है ,मन को जीतना कठिन है

विश्व को जीतना सरल है ,मन को जीतना कठिन है
 
एक बार एक आदमी ने एक जिन्न को वश में कर लिया .
जिन्न प्रकट हो गया..और बोला कि आज से में तुम्हारा
गुलाम हूँ पर मेरी एक शर्त है..कि मुझे लगातार काम
करने की आदत है सो तुम्हें मुझे लगातार काम बताने
होंगे और जैसे ही तुमने काम बताना बंद किया मैं तुम्हें
मारकर खा जाऊँगा..उस आदमी ने खुशी खुशी मंजूर
कर लिया..उसने सोचा कि मेरे पास ढेरों काम हैं
और मुझे खूब ये फ़्री का नौकर मिला अब ये काम करेगा
और मैं आनंद से मौज करूँगा..वह जिन्न को काम
बताने लगा और जिन्न उन्हें चुटकियों में कर देता
था.वह आदमी बङा खुश हुआ..लेकिन उसकी खुशी थोङे
ही समय रह पायी..असल में जिन्न इतनी तेजी से
काम करता था कि काम खत्म होने लगे और धीरे धीरे
सब काम खत्म हो गये..अब तो उस आदमी को समझ
में न आये कि जिन्न को क्या काम बताये..आखिर में उसे
काम नहीं सूझा तो जिन्न उसे खाने को दौङा और वह
आदमी जान बचाकर भागा . जिन्न उसके पीछे पीछे
दौङने लगा..वह आदमी आकर एक साधु संत की
कुटिया में गिर पङा और कहने लगा कि महाराज
मुझे किसी तरह बचा लीजिये ..संत ने उसकी पूरी
बात सुनी और कहा कि बस इतनी सी बात है..फ़िर उन्होनें
कहा जैसा में कहूँ वैसा करना..तब तक जिन्न पास आ गया
था ..उस आदमी ने संत की बतायी युक्ति से कहा कि
हे जिन्न ये बांस जमीन में गढा हुआ है जब तक मैं
तुम्हें दूसरा काम न बताऊँ इस पर चङो और फ़िर उतरो
फ़िर चङो और फ़िर उतरो...जिन्न ऐसा ही करने लगा
और थोङी ही देर में व्याकुल हो गया उसने उस आदमी
से कहा कि अब मेरी कोई शर्त नहीं है..तुम जब काम बताओगे
मैं बो काम करूँगा पर ये आदेश वापस ले लो..
वास्तव में हमारे मन की ठीक यही स्थिति है..मन जिन्न की
तरह है..और जीव को कामों में उलझाकर मार रहा है
सतगुरु की बतायी युक्ति से ये वश में हो जाता है और तब
उल्टा हो जाता है ..अभी तक जो जीव मन के कहे अनुसार
नाच रहा था..अब मन उसका गुलाम होकर कार्य करता है
और जीव अपार आनंद का अनुभव करता है ..क्योंकि
वह सतगुरु की बतायी युक्ति से करोङो जन्मों की मन की
इस दासता से मुक्त हो जाता है..वास्तव में यह साधारण
कहानी नहीं है इसमें एक बेहद गूढ रहस्य छिपा है.यदि
ठीक से विचार करो तो..

संत - ये सबसे बड़ी शक्ति होती है

संत - ये सबसे बड़ी शक्ति होती है
आम तोर पर लोग साधू संतों आदि मैं अंतर नहीं कर पाते हैं । मैं इनके बारे मैं बता रहा हूँ ।
संत - ये सबसे बड़ी शक्ति होती है .इनसे ऊपर कोई शक्ति नहीं होती .संत शब्द सनत से बना है जिसका मतलव ही लगातार होता है .इनका केवल एक ही धर्म होता है सनातन धर्म .यानी संसार के किसी धर्म से इनको कोई मतलव नहीं होता है .इनका जन्म भी नहीं होता है ये प्रकट होते है । महत्वपूर्ण बात ये है की शास्त्रों वेदों से इनका कोई लेना देने नहीं होता है .इनके मत को संतमत कहते है .केवल परमात्मा का असली नाम यानी ढाई अक्षर का महामंत्र देकर ये जीवों का कल्याण करते है .आम पूजा नियम आदि से इनका कोई मतलब नहीं होता है ।
योगी -ये दुसरे नंबर पर होते है .इनकी साधनाएँ अनेकों प्रकार की होती है और योगियों के बहुत प्रकार होते है .कुछ योगियों को भगवान् भी कहा जाता है जैसे राम ,कृष्ण ,परुशराम ये ढेरों की संख्या मैं होते है .खास बात ये है के ये तीन लोक के दायरे मैं आते है और अविनाशी नहीं होते है यानी एक निर्धारित समय के बाद इनका रिटायर मेंट हो जाता है इनके अनेकों मंत्र अनेकों साधनाएँ होती है ।
महात्मा -ये तीसरे नंबर पर होते है .इनके भी अनेक प्रकार होते है इनकी भी अनेक प्रकार की साधनाएँ होती है उदाहरण के लिए कृष्ण को ,सूर्य को इन्द्र को भी महात्मा कहा जाता .दरअसल कोई आत्मा जब ऊंचाई को प्राप्त कर लेती है तो वो आत्मा से महात्मा हो जाती है फिर इनका रूपांतरण इनकी इच्छानुसार देवता आदि मैं हो जाता है । बहुत अच्छे कर्मों से भी देवता बना जा सकता है और इन्द्र आदि पदवी प्राप्त करके स्वर्ग आदि सुखों का भोग हजारों बरसों तक किया जा सकता है
सिद्ध -महात्मा से नीचे सिद्ध होते है कुण्डलिनी ज्ञान के माध्यम से ये सिद्धि प्राप्त कर लेते है और विभिन्न प्रकार के चमत्कार आदि दिखाकर ये वैभव भोगते है .इनकी सिद्धि का असर ख़त्म होते ही इनकी बेहद दुर्गति होती है.और बाद मैं नरक के अलावा इनका कोई स्थान नहीं होता है
एक बात और है संसार मैं सबसे अधिक प्रभावित लोग सिद्धों से ही होते है और उनके अधिक संपर्क मैं रहने बाले क्रियाओं मैं साथ देने वाले भी दुर्गति को प्राप्त होकर नरक मैं स्थान पाते हैं ।
बस इनसे नीचे कोई स्थान नहीं होता । संसारमैं जो लोग तमाम तरह के स्वांग रच कर विभिन्न पदवी आदि धारण कर लेते है उसका अलोकिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं होता है
इनमें पुजारी ,भिछुक ,शास्त्रग्य ,भागवत वक्ता , प्रवचन करता , विभिन्न मतों का अनुसरण करने वाले ,ज्योतिषी ,तांत्रिक ,सन्यासी ,आदि किसी भी प्रकार का आत्म कल्याण करने मैं सक्षम नहीं होते है । और न ही कथा कीर्तन भागवत आदि सुनने से आत्म कल्याण होता है और न ही मुक्ति होती है ।
वास्तव मैं कोई भी धर्म हो कोई भी पूजा हो किसी भी जाती या देश का इंसान हो कुण्डलिनी ज्ञान और मुक्ति के लिए सहज योग के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है । ध्यान रखे कुण्डलिनी ज्ञान से मुक्ति कभी नहीं होती है । हाँ आत्मा अति दुर्लभ महानता को भी इस ज्ञान से प्राप्त कर सकती है और मनुष्य शारीर के रहते हुए वह इन्द्र आदि देवता की पदवी प्राप्त कर सकती है
पर मुक्ति का ज्ञान कुण्डलिनी ज्ञान से अलग है

आत्म ज्ञान के तीन प्रमुख तत्व

आत्म ज्ञान के तीन प्रमुख तत्व

जब कोई साधक पूजा उपासना से थोडा ऊपर उठाकर विशिष्ट ज्ञान के दायरे मैं आ जाता है तब अलग अलग संतों और संसार मैं प्रचलित विभिन्न मतों से उसे ज्ञात होता है के जो पूजा अब तक वह करता रहा है उसका कोई खास लाभ नहीं है । तब ज्ञान बुद्धि से उसे पता चलता है के संसार मैं तीन तरह के मत प्रचलित है ।
पहला अद्वैत ज्ञान - इसका अर्थ है के वो परमात्मा एक ही है और इसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है सब तरफ वो ही वो है .वास्तव मैं ययः एक अकाट्य सत्य है पर इस सत्य को जान्ने वाला कोई विरला साधू ही होता है । अत्यंत दुर्लभ ये ज्ञान करोड़ों जन्मों की तपस्या के बाद मिलाता है इस ज्ञान को जानने वाले ६०० बरसों मैं गिने चुने संत ही थे जिनमें कबीर साहिब रैदास जी दादू जी पालतू जी मीराबाई रिहाई जी तुलसीदास जी
रामकृष्ण परमहंस आदि हुए हैं मैंने कहा के ये अत्यंत दुर्लभ ज्ञान है जब तक आप को इस ज्ञान का कोई संत नहीं मिलता आप इस ज्ञान की कल्पना भी नहीं कर सकते है ।
VAISE जिन लोगों की रूचि इस ज्ञान मैं है उन्हे मई बता दूँ के आप कबीर का अनुराग सागर कबीर का बीजक आदि पद लें आप को उसमें पूरे उत्तर मिल जायेंगे
वास्तव मैं कबीर का अनुराग सागर उन लोगो की आँखें खोलने के लिए पर्यत है जो मूर्ति पूजा को जाने क्या मानते है । १०० रूपये मूल्य की ये किताब आपके सोचने का तरीका बदल देगी और आप सब कुछ भूल कर किसी सच्चे संत की तलाश मैं निकल पड़ेंगे ।
दूसरा द्वैत ज्ञान है - इसका मतलब है के पुरुष और प्रकृति दो ही है । पुरुष अर्थात चेतन और प्रकृति अर्थात जड़ तत्व इसका सिधांत ये है के चेतन के होने से प्रकृति मैं क्रिया हो रही है । वास्तव मैं इस ज्ञान को जान्ने वाले भी दुर्लभ ही है क्योंकि इस ज्ञान को जान्ने वाला भी काल की पहुँच से ऊपर होता है क्योंकि ये सिद्धांत भी किसी देवी शक्ति या एनी शक्ति को नहीं मानता है फिर भी इसके संत अद्वैत के मुकाबले काफी अधिक होते है । जबकि ये संत आम आदमी को कभी शायद ही मिल पाए क्योंकि ये गुप्त साधना करना पसंद करते है और बहुत कम शिष्य बनाना पसंद करते है इसलिए ये ज्ञान भी दुर्लभ ज्ञान की SHRANI मैं AATA है ।
TEESARA ज्ञान TRAIT का है
पर्म्मात्मा प्रकृति और जीव इसी ज्ञान मैं बहुत सी पूजा पद्धिति आती है
वास्तव मैं मैंने इसके लिए एक परिभाषा की तरह शब्दों का इस्तेमाल किया है इसकी वजह से आपको इनका मतलब समझने मैं दिक्कत हो सकती है ।
जैसे के साधारण भाषा मैं तरत को भगवन माँ शक्ति और जीव कहा गया है
दुसरे ज्ञान मैं इसी पुरुष और प्रकृति से साड़ी स्रष्टि का उत्पन्न होना बताया गया है परन्तु उन्हें एक पहला आदमी पहली ओरत बताया गया है बिबले मैं इसको एडम और एव बताया गया है परन्तु वास्तव मैं सच कुछ और ही है
हम लोग जिस ज्ञान की साधना करते है वह अद्वैत की साधना है । इसे ही सहज योग कहा जाता है इसमें सतगुरु द्वारा ढाई अक्षर का महामंत्र दे कर (जगाकर ) महाशक्ति से उसी तरह से कनेक्शन जोड़ दिया जाता है जिस तरह आप अपने घर मैं खम्बे से बिजली का तार जोड़ लेते है ।

सहज योग क्या है

सहज योग क्या है

वास्तव मैं सहज योग को समझने के लिए हमें चार घड़ों के दृष्टान्त को समझना होगा । मान लीजिये बारिश हो रही है और उसमें चार घड़े रखे हें ।
उनमें एक घड़ा तो बिलकुल सीधा रखा है दूसरा घड़ा थोडा तिरछा रखा है तीसरा घड़ा उल्टा रखा है और चौथा घड़ा सीधा है परन्तु फूटा है तो इनमें बारिश का पानी किस्में जायेगा । सीढ़ी सी बात है के सही और सीधे रखे हुए घड़े मैं । इसी प्रकार प्रभु की कृपा निरंतर बरस रही है पर हम घड़ों की तरह स्वभाव वालें हैं ।
कोई स्वभाव से तिरछा है तो उसे कृपा का थोडा ही अनुभव होता है ।
कोई उल्टा स्वभाव का है तो उसे बात समझ ही नहीं आती है ।
कोई फूटे घड़े के सामान है वो बात समझता तो है पर बात को अपने
रोक नहीं पाटा है ।
जो सीधा घड़े के सामान है वो बात को ग्रहण करता है और उसका लाभ भी उठता है और मुक्ति पाने का अधिकारी भी होता है । वास्तव मैं सीधे घड़े से मतलव है के आत्म ज्ञान का महत्व समझ मैं आते ही सतगुरु के सामने समपर्ण हो जाना ।
शिष्य के समपर्ण होते ही उसे अलोकिक रहस्य्य समझ मैं आने लगते हैं लेकिन ये जब सतगुरु से तुम्हारा मिलना हो जय तभी संभव है । यहाँ मैं एक बात बता दूँ हरेक कोई सतगुरु नहीं होता ।
सतगुरु वाही है जो तुम्हारी आत्मा को प्रकाशित कर दें या तुम्हारा तीसरा नेत्र खोल दें य्यादी तुम्हें गुरु की शरण मैं आये हुए तीन महीने से अधिक हो गए और तुम बताये हुए तरीके से साधना भी कर रहे हो और तुम्हें कोई अनुभव नहीं हुआ तो तुम सतगुरु तो क्या किसी गुरु की शरण मैं भी नहीं हो । धर्म्ग्रिन्ठो मई इस बात को स्पष्ट कहा गया है के कलियुग मैं झूतेहें गुरुओं का बेहद बोलबाला होगा और जनता इनकी झूठी बातों मैं उलझ कर रह जाएगी । इसलिए यदि आपका गुरु सच्चा है तो अधिक से अधिक आपको तीन महीने मैं अलोकिक अनुभव होने लगंगे । मैं ऐसे साधको को जनता हूँ जिन्हें ११ दिनों मैं अनेक अनुभव हुए और वो भली प्रकार साधना करने लगे वास्तव मैं सहज योग उसी तरह से है जैसे आप बिजली के तार से कबले अपने घर मैं जोड़तें है और लाइट जलने लगती है .

ज्ञान मार्ग की चार प्रमुख गतियाँ

ज्ञान मार्ग की चार प्रमुख गतियाँ

वैसे तो ज्ञान मार्ग की अनेक गतियाँ हैं । परन्तु सुविधा के लिहाज से हम इन्हें चार प्रमुख भागों मैं बाँट सकते हैं । यहाँ ये बताना जरूरी है के मन और शारीर के अतिरिक्त जो अनुभव किसी ज्ञान द्वारा किये जाते है उन्हें अलोकिक ज्ञान कहते हैं । मन और शारीर से किया जाने वाला ज्ञान कर्म की श्रेणी मैं आता हैं .त्तुम्हारा कर्म ही तुम्हें अगले जन्मों मैं ले जाता है और जैसा कर्म होता है उसी आधार पर अगला जन्म होता है
यहाँ ये बताना जरूरी है के आपका कर्म कितना ही अछ्छा क्यों न हो दुबारा मनुष्य जन्म ८४ लाख योनियों को भोगने के बाद ही प्राप्त होगा । आखिर इस मनुष्य शारीर मैं कुछ तो खास बात है जो देवता भी चाहते है के एक बार उन्हें ये मनुष्य शारीर मिल जय तो वे अखंड आनंद देने वाली मुक्ति को प्राप्त हो सकें ।
श्रीकृष्ण ने गीता मैं कहा है के हे अर्जुन मुक्ति ज्ञान से है अछ्छे कर्मों से मुक्ति कभी नहीं होती ।
अछ्छे कार्मों से तुझ्र स्वर्ग तो प्राप्त हो सकता है पर मुक्ति कभी प्राप्त नहीं होगी । जाहिर है ये मुक्ति बड़ी ऊंची चीज है .और मुक्ति के सामने स्वर्ग एकदम तुच्छ है
इस लिए ज्ञान मार्ग को चार भागों मैं बांटा ग्या है
१_विहंगम मार्ग २_मकर मार्ग ३_मरकत मार्ग ४_मीन मार्ग
इनमें विहंगम मार्ग ही संत मार्ग होता है बाकि सब सिध्धों के मार्ग हैं । इसे ही सहज योग कहते है ।

कर्मों की गति और आत्मा

कर्मों की गति और आत्मा

 
भगवन श्रीकृष्ण अर्जुन को पूरा सृष्टि ज्ञान बताते रहे पर जब अर्जुन ने कर्तव्य आदि के वारे मैं प्रश्न किया तो श्रीकृष्ण जैसा ज्ञानी भी ठिठक गया श्रीकृष्ण ने कहा की है अर्जुन ये कर्मों की गति वेहद कठिन है .सामान्य तौर पर इसको आजतक कोई समझ नहीं सका है ।
वास्तव मैं ये आत्मा न तो कुछ करता है और न ही कहीं आता जाता है फिर ये बड़े आश्चर्य की बात है के ये जीव रूप मैं कितने दुःख भोग रहा है । वास्तविक बात ये है के ये आत्मा अपने स्वरुप को भूल गया है और अपने आप को जीव मान बैठा है । जबकि सच बात ये है के आत्मा बहुत ऊंची चीज है ।
संत तुलसीदास ने कहा है
इश्वर अंश जीव अविनाशी , चेतन अमल सहज सुखराशी
वास्तव मैं ये आत्मा परमात्मा का ही अंश है । पर इसमें मैं उत्पन्न हो जाने के कारन ये सुख को छोड़कर घोर दुखों मैं आकर फँस गया ।
संत कभी न जन्म लेते है और न ही मरते है । वो सिर्फ जीव को इस मृत्य्लोक से निकलकर उसका वास्तविक परिचय बताते हैं और उसे सुखधाम तक जो की इस आत्मा का असली घर है जाने का तरीका और मार्ग बताते हैं ।
संतों का आगमन इसी हतु इस प्रथ्वीलोक पर होता है वर्ना तो वे अविनाशी लोक के निवासी हैं ।
जब अमरलोक से बिछड़ा जीव घोर दुखों और संकटों मैं प्रभु को याद करता है तो प्रभु उसको इन दुखों से मुक्त करने के लिए संत आत्माओं को इस लोक मैं भेजते है संत दुखी जीवों को दुःख से छुटकारा पाने का उपाय बताते हैं और हमेशा के आनंद का यानि मुक्ति का मार्ग भी बताते हैं । जिसे सहज योग के नाम से जाना जाता है
वास्तव मैं सहज योग न तो कुंडली जागरण को कहते हैं और न ही अस्तान्ग्योग और न ही प्रान्हायाम को और न ही किसी प्रकार के मेडिटेशन ध्यान को सहज योग कहते है और याद रखने योग्य बात ये है के सहजयोग के बिना मुक्ति हो ही नहीं सकती है
इसका एक ही मत है और एक ही नाम है जिसे संतमत के नाम से और सहज योग के नाम से जानते हैं । वास्तव मैं ये ज्ञान गूढ़ है और हजारों बर्षों मैं प्रकट होता है और इसे सिर्फ संतों की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है

story-1-लिया हुआ देना होगा

लिया हुआ देना होगा

एक समय की बात है एक आदमी जिंदगी मैं पहली बार किसी महात्मा का सत्संग सुनने गया । वहां जाकर उसने सुना के हमें इस जीवन मैं जो मिला है वो हमारे पूर्व जन्मों के पुन्य से मिला है और केवल अपने परिवार के लिए ही सोचना परमार्थ नहीं स्वार्थ है ।
अर्थात अगर वह इस जीवन की तरह ही अगले जन्मों मैं होना चाहता है तो उसे परमार्थ के कार्य करने ही होंगे अन्यथा जब उसने बोया ही नहीं तो वो कटेगा कैसे ।
उस आदमी के दिमाग मैं यह बात बैठ गई । वो अगले जन्म मैं भी धन का सुख प्राप्त करना चाहता था क्योंकि उसका ये मन्ना था की धन से सुख पूर्वक रहा जा सकता है और धन बहुत सी समस्यायों का समाधान भी है ।
उसने अपने घर आकर ये घोषणा कर दी के जिसको भी अगले जन्म के लिए पैसा चाहिए वो मुझसे ले जय अर्थात कोई भी मुझसे इस जन्म मैं पैसा ले ले और अगले जन्म मैं लोटा दे जो इस शर्त पर तैयार हो वो पैसा ले जा सकता है ।
उसकी ये घोषणा सुनकर चार दोस्तों ने सोचा के चलो ये खूब पागल मिला है । जो इस जन्म मैं रुपया देगा और अगले जन्म मैं लेगा ये रूपया तो खूब फ्री मैं मिला समझो अरे अगले जन्म मैं पता नहीं ये कहाँ होगा हम कहाँ होगे ये हमें कैसे हमें पहचानेगा और फिर पता नहीं अगला जन्म होता भी है या नहीं ।
यही सोचकर वो ५०-५० ००० रूपये चारों ले आये के चलो ये खूब पागल मिला । उस आदमी ने उन चारों से कागज पर लिखवा लिया के वो ये रूपया अगले जन्म मैं देंगे । वो खूब ख़ुशी मनाते हुए आ रहे थे के तभी प्रभु की कृपा से एक लीला हुई ।
वो रात मैं जहाँ ठहरे थे वहां एक कोल्हू चलने वाले का घर था । रात का समय था जब उनको ये विलक्षण लीला दिखाई दी । उस टैली के घर एक भैंसा और एक वेळ था व्वो दोनों आपस मैं बाते कर रहे थे । प्रभु की लीला से उनको वे बातें यानि जन्बरों की बोली समझ मैं आने लगी । भंसा कह रहा था के इस तेली के मुझ पर दो चक्कर का ऋण और बचा है जैसे ही दो चक्कर पूरे होंगे मेरी मृत्यु हो जाएगी और मेरा ऋण ख़त्म हो जायेगा
वेळ ने कहा तुम्हारी मुक्ति तो हो जाएगी पर मेरे ऊपर तो इसके ५० ०००
रुपये निकलते है जब तक वो पूरे नहीं हो जाते मुझे इसका काम
करना ही होगा फिर कुछ सोचकर वेळ बोला के एक उपाय और भी है वो यदि हो जाय तो ;यहाँ के राजा के हाथी के ऊपर मेरे ५० ००० रूपये है वो किसी प्रकार इसे मिल जाय तो मेरा ऋण भी चुक जाएगा
भैसा बोला कल राजा एक आयोजन करवाता है जिसमें कोई भी अपने किसी जानवर से यदि राजा के हाथी को मैदान छोड़कर भागने पर मजबूर कर दे तो राजा उसे इनाम मैं ५० ००० रूपये देता है यदि तुम किसी तरह राजा के हाथी को भयभीत कर दो और इस तेली को वो ५० ००० रूपये मिल जाए तो तुम्हारी भी मुक्ति हो जायेगी ।
वेळ को ये बात जाँच गई और वो भगवान् से प्रार्थना करने लगा के मेरे मालिक को इस बात की प्रेरणा हो के वो कल के मुकाबले के लिए मुझे ले जाए ।चारों दोस्त ये बात सुनकर चकित रह गए और वे बेहद भयभीत भी हो गए । उन्होंने इस बात की सच्चाई ज्जान्ने के लिए दूसरे दिन रूकने का निश्चय किया । के भैसा और वेळ की बातों का प्रमाण देखेंगे
दूसरे दिन जैसे ही भैसा के दो चक्कर पूरे हुए वो जमीन पर गिर पड़ा और मर गया । उधर तेली ने सोचा के मेरा भैसा मर गया है अब मुझे क्या करना चाहिए मुझे रुपयों की बहुत जरूरत है तभी उसके दिमाग मैं आया के यदि मैं अपने वेळ को राजा के हाथी से लडवा दूँ तो मेरी ये समस्या हल हो सकती है । ५० ००० रूपये से मेरे अनेकों काम हो जायेंगे यही सोचकर उसने हाथी से मुकाबले मैं अपने वेळ को लडवा दिया ।
अपनी मुक्ति का ख्याल रखकर वेळ पूरी ताकत से हाथी की तरफ बेहद गुस्से मैं दौड़ा हाथी उसका गुस्सा देखकर भोचक्का रह गया और दर कर भाग गया ।
तेली को ५० ००० रुपये मिलते ही व्वल का कर्ज उतर गया और वो भी गिरकर मर गया । अब तो उन चारों दोस्तों के छक्के छूट गए । लिया हुआ इस तरह चुकाना पड़ता है इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी । वो उलटे पाँव धनि आदमी के पास पहुंचे और कहने लगे के अपना रूपया वापस ले लो हमें नहीं चाहिए ।
लेकिन वो धनि आदमी अड़ गया के मुझसे तो तुम्हारी अगले जन्म की बात तय हुई है इसलिए रुपया मैं अगले जन्म मैं ही लूँगा । चरों दोस्त पछताने लगे के अब क्या करे ।
इसका रुपया न जाने हमें किस तरह अदा करना पड़े । फिर कुछ सोचकर उन्होंने उसीके
गाव मैं एक तालाव बनवा दिया उस सुन्दर तालाब के चारों और उन्होंने सुन्दर सी वाटिका का निर्माण कराया और कर्ज के दो लाख रूपये पूरे खर्च कर दिए लेकिन इसके बाद वो एक एक डंडा लेकर चारों तरफ घूमने लगे वो किसी आदमी को तो दूर किसी पशु पक्षी तक को पानी नहीं पीने देते और न ही किसी को बाग़ मैं घुसने देते ।
उनकी चर्चा चारों और फेल गई और उस दानी आदमी के कानो तक भी पहुंची के चार आदमी एक सुन्दर बाग़ के मालिक हैं पर न तो वो बाग़ मैं किसी को घुसने देते हैं और न ही किसी को पानी तक पीने देते है
वो आदमी भी उनके पास गया तो वो वाही चारों थे जिन्होंने उससे कर्जा लिया था उसने कहा के भाई तुम लोंगो को पानी क्यों नहीं पीने देते हो । ये सुनकर वो चरों वोले के हम एक शर्त पर तुम्हारी बात मान सकते है के तुम ये बात मान लो के ये बाग़ तुम्हारा हुआ और हमारा कर्जा चुक गया । फिर कोई भी इसका इस्तेमाल करे । थोड़ी नानुकर के बाद वो आदमी मान गया और वे कर्जे से मुक्त हो गए ।